बाबू साहब: इससे तुम बेफिक्र रहो, मैं सब बन्दोबस्त कर लूँगा।
बाबू साहब जिस तरह इस किले के अन्दर आए थे वह हम ऊपर लिख आये हैं, उसे दोहराने की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ इतना लिख देना बहुत है कि पीठ पर गट्ठर लादे वे उसी तरह किले के बाहर हो गये और मैदान में जाते हुए दिखाई देने लगे। सिर्फ अब की दफे इनके साथ गोद में लड़के को उठाए एक लौंडी मौजूद थी। पानी का बरसना बिल्कुल बन्द था और आसमान पर तारे छिटके हुए दिखाई देने लगे थे।
बाबू साहब ने शिवालय की तरफ न जाकर दूसरी ही तरफ का रास्ता लिया। मगर जब वह सन्नाटे खेत में निकल गये तो हाथ में गंडासा लिए दो आदमियों ने इन्हें घेर लिया और डपट कर कहा, "खबरदार, आगे कदम न बढ़ाइयो! गट्ठर मेरे सामने रख और बता तू कौन है! बेशक किसी की लाश लिए जाता है।"
बाबू साहब: हाँ हाँ, बेशक, इस गट्ठर में लाश है और उस आदमी की लाश है जिसने यहाँ की कुल रिआया को तंग कर रक्खा था! जहाँ तक मैं ख्याल करता हूँ, इस राज्य में कोई आदमी ऐसा न होगा जो इस कम्बख्त का मरना सुन खुश न होगा।
प॰ आ॰: मगर तुम कैसे समझते हो कि हम भी खुश होंगे?
बाबू साहब: इसलिए कि तुम राजा के तरफदार नहीं मालूम पड़ते!
दू॰ आ॰: खैर जो हो, हम यह जानना चाहते हैं कि यह लाश किसकी है और तुम्हारा क्या नाम है?
बाबू सा॰: (गट्ठर जमीन पर रख कर) यह लाश हरीसिंह की है मगर मैं अपना नाम तब तक नहीं बताने का, जब तक तुम्हारा नाम न सुन लूँ।
प॰ आ॰: बेशक, यह सुन कर कि यह लाश हरीसिंह की है मुझे भी खुशी हुई और मैं अब यह कह देना उचित समझता हूँ कि मेरा नाम नाहरसिंह है। मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम हमारे पक्षपाती हो लेकिन अगर न भी हो तो मैं किसी तरह तुमसे डर नहीं सकता!
बाबू सा॰: मुझे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई कि आप नाहरसिंह हैं। बहुत दिनों से मैं आपसे मिला चाहता था मगर पता न जानने से लाचार था। अहा, क्या ही अच्छा होता अगर इस समय वीरसिंह से भी मुलाकात हो जाती!