पृष्ठ:कटोरा भर खून.djvu/३९

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मगर फिर भी वहां हमेशा पहरा पड़ा करता है, दूसरे दरवाजे की ताली महाराज के पास रहती है, और एक तीसरी छोटी-सी खिड़की है जिसकी ताली मेरे पास रहती है, और इसी राह से लौंडियों को आने-जाने देना मेरा काम है।

बाबू साहब : हाँ, यह हाल मैं जानता हूँ मगर यह तो कहो तुम तो जाकर घण्टे-भर बाद लौटोगे, तब तक यहाँ आकर मुझे कोई देख न लेगा ?

रामदीन : जी नहीं, आप बेखौफ रहें, अब यहां आने वाला कोई नहीं है बल्कि इस बच्चे के रोने से भी किसी तरह का हर्ज नहीं है क्योंकि किले का यह हिस्सा बिल्कुल ही सन्नाटा रहता है ।

इतना कह रामदीन वहाँ से चला गया और घण्टे-भर तक बाबू साहब को उन दोनों लौंडियों से बातचीत करने का मौका मिला । यों तो घण्टे-भर तक कई तरह की बातचीत होती रही मगर उनमें से थोड़ी बातें ऐसी थीं जो हमारे किस्से से सम्बन्ध रखती हैं इसलिए उन्हें यहाँ पर लिख देना मुनासिब मालूम होता है ।

बाबू साहब : क्या महाराज कल भी आये थे ?

एक लौंडी : जी हाँ, मगर वह किसी तरह नहीं मानती, अगर पाँच-सात दिन यही हालत रही तो जान जाने में कोई शक नहीं । ऊपर से बीरसिंह की गिरफ्तारी का हाल सुनकर वह और भी बदहवास हो रही है ।

बाबू साहब : मगर बीरसिंह तो कैदखाने से भाग गए ।

एक लौंडी : कब ?

बाबू साहब : अभी घण्टा-भर भी नहीं हुआ ।

एक लौंडी : आपको कैसे मालूम हुआ ?

बाबू साहब : इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं !

एक लौंडी : तब तो आप एक अच्छी खुशखबरी लेकर आये हैं। आपसे कभी बीरसिंह से मुलाकात हुई है कि नहीं ?

बाबू साहब : हाँ मुलाकात तो कई मर्तबे हुई है मगर बीरसिंह मुझे पहचानते नहीं । मैं बहुत चाहता हूँ कि उनसे दोस्ती पैदा करूँ मगर कोई सबब ऐसा नहीं मिलता जिससे वह मेरे साथ मुहम्बत करें, हाँ मुझे उम्मीद है कि तारा की बदौलत बेशक उनसे मुहब्बत हो जाएगी ।

एक लौंडी : कल पंचायत होने वाली थी, सो क्या हुआ ?

बाबू साहब : हाँ, कल पंचायत हुई थी जिसमें यहाँ के बड़े-बड़े पन्द्रह जमींदार