कुछ कर न सकी क्योंकि करनसिंह साल में पाँच-छ: मरतबे अच्छे-अच्छे तोहफे नेपाल भेजकर वहाँ के राजा को अपना मेहरबान बनाये रहा । यहाँ तक कि कुछ दिन बाद नेपाल का राजा जिसने करनसिंह को हरिपुर की सनद दी थी परलोक सिधारा और उसका भतीजा गद्दी पर बैठा । तब से करनसिंह राठू और भी निश्चिन्त हो गया और रिआया पर भी जुल्म करने लगा । वही करनसिंह राठू आज हरिपुर का राजा है जिसके पंजे में तुम फँसे हुए थे । कहो, ऐसे नालायक राजा के साथ अगर मैं दुश्मनी करता हूँ तो क्या बुरा करता हूँ ?
बीर० : (कुछ देर चुप रहने के बाद) बेशक, वह बड़ा मक्कार और हराम- जादा है । ऐसों के साथ नेकी करना तो मानों नेकों के साथ बदी करना है !!
नाहर० : बेशक, ऐसा ही है ।
बीर० : मगर आपने यह नहीं कहा कि अब करनसिंह सेनापति के लड़के कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं ?
नाहर० : क्या इस भेद को भी मैं अभी खोल दूँ ?
बीर० : हाँ, सुनने को जी चाहता है ।
नाहर० : करनसिंह सेनापति के छोटे लड़के तो तुम ही हो मगर तुम्हारी बहिन का हाल नहीं मालूम । पारसाल तक तो उसकी खबर मालूम थी मगर इधर साल-भर से न-मालूम वह मार डाली गई या कहीं छिपा दी गई ।
इतना हाल सुनकर बीरसिंह रोने लगा, यहाँ तक कि उसकी हिचकी बँध गई । नाहरसिंह ने बहुत-कुछ समझाया और दिलासा दिया । थोड़ी देर बाद बीरसिंह ने अपने को संभाला और फिर बातचीत करने लगा ।
बीर० : मगर कल आपने कहा था कि तुम्हारी उस बहिन से मिला देंगे जिसके बदन में सिवाय हड्डी के और कुछ नहीं रह गया है । क्या वह मेरी वही बहिन है जिसका हाल आप ऊपर के हिस्से में कह गए हैं ?
नाहर० : बेशक वही है ।
बीर० : फिर आप कैसे कहते हैं कि साल-भर से उसका पता नहीं है ?
नाहर० : यह इस सबब से कहता हूँ कि उसका ठीक पता मुझे मालूम नहीं है, उड़ती-सी खबर मिली थी कि वह किले ही के किसी तहखाने में छिपाई गई है और सख्त तकलीफ में पड़ी है । मैं कल किले में जाकर उसी भेद का पता लगाने वाला था मगर तुम्हारे ऊपर जुल्म होने की खबर पाकर वह काम न कर सका और