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लिए आज्ञा मांगी जिससे राजा बहुत ही प्रसन्न हुआ और दो सौ आदमियों को साथ देकर करनसिंह को डाकुओं की गिरफ्तारी के लिए रवाने किया। छः महीने के अरसे में एकाएकी करके करनसिंह ने तीनों डाकुओं को गिरफ्तार किया जिससे राजा के यहाँ उसकी इज्जत बहुत बढ़ गई और उन्होंने प्रसन्न होकर हरिपुर का इलाका उसे दे दिया जिसकी आमदनी मालगुजारी देकर चालीस हजार से कम न थी, साथ ही उन्होंने एक आदमी को इस काम के लिए तहसीलदार मुकर्रर करके हरिपुर भेज दिया कि वह वहाँ की आमदनी वसूल करे और मालगुजारी देकर जो कुछ बचे, करनसिंह को दे दिया करे। अब करनसिंह की इज्जत बहुत बढ़ गई और वह नेपाल की फौज का सेनापति मुकर्रर किया गया। अपने को ऐसे दर्जे पर पहुँचा देख करनसिंह ने पटने से अपनी जोरू और लड़के-लड़कियों को करनसिंह राठू के सहित बुलवा लिया और खुशी से दिन बिताने लगा।

दो वर्ष का जमाना गुजर जाने के बाद तिरहूत के राजा ने बड़ी धूमधाम से नेपाल पर चढ़ाई की जिसका नतीजा यह निकला कि करनसिंह ने बड़ी बहादुरी से लड़कर तिरहुत के राजा को अपनी सरहद के बाहर भगा दिया और उसको ऐसी शिकस्त दी कि उसने नेपाल को कुछ कौड़ी देना मंजूर कर लिया। नेपाल के राजा नारायणसिंह ने प्रसन्न होकर करनसिंह की नौकरी माफ कर दी और पुश्तहापुश्त के लिए हरिपुर का भारी परगना लाखिराज करनसिंह के नाम लिख दिया और एक परवाना तहसीलदार के नाम इस मजमून का लिख दिया कि वह परगने हरिपुर पर करनसिंह को दखल दे दे और खुद नेपाल लौट आवे।

नेपाल से रवाने होने के पहले ही करनसिंह की स्त्री ने बुखार की बीमारी से देह-त्याग कर दिया, लाचार करनसिंह ने अपने दोनों लड़कों और लड़की तथा करनसिंह राठू को साथ ले हरिपुर का रास्ता लिया।

करनसिंह राठू की नीयत बिगड़ गई। उसने चाहा कि अपने मालिक करनसिंह को मार कर राजा नेपाल के दिए परवाने से अपना काम निकाले और खुद हरिपुर का मालिक बन बैठे। उसको इस बात पर भरोसा था कि उसका नाम भी करनसिंह है मगर उम्र में वह करनसिंह से सात वर्ष छोटा था।

करनसिंह राठू को अपनी नीयत पूरी करने में तीन मुश्किलें दिखाई पड़ीं। एक तो यह कि हरिपुर का तहसीलदार अवश्य पहिचान लेगा कि यह करनसिंह