महा० : क्या वह आज इसी शहर में आया हुआ है ?
बच्चन० : जी हां, बीरसिंह के बाग में ही मुझे मिला था ।
महा० : साफ-साफ कह जा, क्या हुआ ?
बच्चन ने बीरसिंह के तोशेखाने से मोहर लेकर चलने का और उसी बाग में नाहरसिंह के मिलने का हाल पूरा-पूरा कहा । जब वह संदेशा कहा जो डाकू ने महाराज को दिया था तो थोड़ी देर के लिए महाराज चुप हो गए और कुछ सोचने लगे, आखिर एक ऊंची सांस लेकर बोले-
महा० : यह शैतान डाकू न-मालूम क्यों मेरे पीछे पड़ा हुआ है और किसी तरह गिरफ्तार भी नहीं होता । मुझे बीरसिंह की तरफ से छुट्टी मिल जाती तो कोई-न-कोई तर्कीब उसके गिरफ्तार करने की जरूर करता । कुछ समझ में नहीं आता कि मेरी उन कार्रवाइयों का पता उसे क्योंकर लग जाता है जिन्हें मैं बड़ी होशियारी से छिपा कर करता हूं । (हरीसिंह की तरफ देख कर) क्यों हरीसिंह, तुम इस बारे में कुछ कह सकते हो ?
हरी० : महाराज ! उसकी बातों में अक्ल कुछ भी काम नहीं करती ! मैं क्या कहूं ?
महा० : अफसोस ! अगर मेरी रिआया बीरसिंह से मुहब्बत न रखती तो मैं उसे एकदम मार कर ही बखेड़ा तै कर देता, मगर जब तक बीरसिंह जीता है मैं किसी तरह निश्चिन्त नहीं हो सकता । खैर, अब तो बीरसिंह पर एक भारी इलजाम लग चुका है, परसों मैं आम दरबार करूंगा । रिआया के सामने बीरसिंह को दोषी ठहरा कर फाँसी दूंगा, फिर उस डाकू से समझ लूंगा, आखिर वह हसमजादा है क्या चीज !
महाराज ने आखिरी शब्द कहा ही था कि दर्वाजे की तरफ से यह आवाज आई, "बेशक, वह डाकू कोई चीज नहीं है मगर एक भूत है जो हरदम तेरे साथ रहता है और तेरा सब हाल जानता है, देख इस समय यहाँ भी आ पहुंचा !"
यह आवाज सुनते ही महाराज काँप उठे, मगर उनकी हिम्मत और दिलावरी ने उन्हें उस हालत में देर तक रहने न दिया, ज्यान से तलवार खैंच कर दर्वाजे की तरफ बढ़े, दोनों मुलाजिम लाचार साथ हुए, मगर दर्दाजे में बिलकुल अन्धेरा था इसलिए आगे बढ़ने की हिम्मत न हुई, आखिर यह कहते हुए पीछे लोटे कि 'नालायक ने अन्धेरा कर दिया !'