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बन्द करके रक्खें जिसमें भण्डा न फूटे!!

नाहरसिंह डाकू ने बच्चन को छोड़ दिया और मोहर का डिब्बा लेकर न मालूम कहां चला गया। नाहरसिंह के नाम से बच्चन यहां तक डर गया था कि उसके चले जाने के बाद भी घण्टे-भर तक वह अपने होश में न आया। बच्चन क्या, इस हरिपुर में कोई भी ऐसा नहीं था जो नाहरसिंह डाकू का नाम सुनकर कांप न जाता हो।

थोड़ी देर बाद जब बच्चनसिंह के होश-हवास दुरुस्त हुए, वहां से उठा और राजमहल की तरफ रवाना हुआ। राजमहल यहां से बहुत दूर न था तो भी आध कोस से कम न होगा। दो घण्टे से भी कम रात बाकी होगी जब बच्चनसिंह राजमहल की कई डयोढ़ियां लांघता हुआ दीवानखाने में पहुंचा और महाराज करनसिंह के सामने जाकर हाथ जोड़ खड़ा हो गया। इस सजे हुए दीवानखाने में मामूली रोशनी हो रही थी, महाराज किमखाब की ऊँची गद्दी पर, जिसके चारों तरफ मोतियों की झालर लगी हुई थी, विराज रहे थे, दो मुसाहब उनके दोनों तरफ बैठे थे, सामने कलम-दवात-कागज और कई बन्द कागज के लिखे हुए और सादे भी मौजूद थे।

इस जगह पर पाठक कहेंगे कि महाराज का लड़का मारा गया है, इस समय वह सूतक में होंगे, महाराज पर कोई निशानी गम को क्यों नहीं दिखाई पड़ती?

इसके जवाब में इतना जरूर कह देना मुनासिब है कि पहिले जो गद्दी का मालिक होता था, प्रायः वह मुर्दे को आग नहीं देता था और न स्वयं क्रिया-कर्म करने वालों की तरह सिर मुंडा अलग बैठता था, अब भी कई रजवाड़ों में ऐसा ही दस्तूर चला आता है। इसके अतिरिक्त यहां तो कुंअर साहब के मरने का मामला ही विचित्र था, जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा।

बच्चन ने झुक कर सलाम किया और हाथ जोड़ सामने खड़ा हो गया। नाहरसिंह डाकू के ध्यान से डर के मारे वह अभी तक कांप रहा था।

महा॰ : मोहर लाया?

बच्चन॰ : जी....लाया तो था......मगर राह में नाहरसिंह डाकू ने छीन लिया।

महा॰ : (चौंक कर) नाहरसिंह डाकू ने!!

बच्चन॰ : जी हां।