पृष्ठ:कटोरा भर खून.djvu/१५

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कोई ठिकाना न रहा क्योंकि इसी लाश को उठा कर वह गाड़ने के लिए एकान्त में ले गया था और जब माली की झोंपड़ी में से कुदाल लेकर आया तो वहां से गायब पाया था । देर तक ढूंढने पर भी जो लाश उसे न मिली अब यकायक उसी साश को फिर उसी ठिकाने देखता है जहां पहिले देखा था या जहां से उठा कर गाड़ने के लिए एकान्त में ले गया था !

महाराज के आदमियों ने इस लाश को देख कर रोना और चिल्लाना शुरू किया । खूब ही गुल-शोर मचा । अपनी-अपनी झोंपड़ियों में बेखबर सोये हुए माली भी सब जाग पड़े और उसी जगह पहुंच कर रोने और चिल्लाने में शरीक हुए ।

थोड़ी देर तक वहां हाहाकार मचा रहा, इसके बाद बीरसिंह ने अपने दोनों हाथों पर उस लाश को उठा लिया तथा रोता और आंसू मिसता महाराज की तरफ रवाना हुआ ।


आसमान पर सुबह की सुफेदी छा चुकी थी जब लाश लिए हुए बीरसिंह किले में पहुंचा । वह अपने हाथों पर कुंअर साहब की लाश उठाये हुए था । किले के अन्दर की रिआया तो आराम में थी केवल थोड़े-से बुड्ढे, जिन्हें खांसी ने तंग कर रक्खा था, जाग रहे थे और इस उद्योग में थे कि किसी तरह बलगम निकल जाए और उनकी जान को चैन मिले । हां, सरकारी आदमियों में कुछ घबराहट-सी फैली हुई थी और वे लोग राह में जैसे-जैसे बीरसिंह मिलते जाते उसके साथ होते जाते थे, यहां तक कि दीवानखाने की ड्योढ़ी पर पहुंचते-पहुंचते पचास आदमियों की भीड़ बीरसिंह के साथ हो गई, मगर जिस समय उसने दीवानखाने के अन्दर पैर रक्खा, आठ-दस आदमियों से ज्यादा न रहे । कुंअर साहब की मौत की खबर यकायक चारों तरफ फैल गई और इसलिए बात-की-बात में वह किला मातम का रूप हो गया और चारों तरफ हाहाकार मच गया ।

दीवानखाने में अभी तक महाराज करनसिंह गद्दी पर बैठे हुए थे । दो-तीन दीवारगीरों में रोशनी हो रही थी, सामने दो मोमी शमादान जल रहे थे । बीरसिंह तेजी के साथ कदम बढ़ाए हुए महाराज के सामने जा पहुंचा और कुंअर