रवाना हुआ । इस समय पानी का बरसना बिल्कुल बन्द हो गया था और रात एक पहर से भी कम रह गई थी । बीर सिंह खास महल की तरफ जा रहा था मगर तरह-तरह के खयालों ने उसे अपने आपे से बाहर कर रक्खा था अर्थात् वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि तन-बदन की सुध न थी, केवल मशाल की रोशनी में महाराज के आदमियों के पीछे चले जाने की खबर थी ।
बीरसिंह कभी तो तारा के खयाल में डूब जाता और सोचने लगता कि वह यकायक कहां गायब हो गई या किस आफत में फंस गई ? और कभी उसका ध्यान कुंअर साहब की लाश की तरफ जाता और जो-जो ताज्जुब की बातें हो चुकी थीं उन्हें याद कर और उनके नतीजे के साथ अपने और अपने रिश्तेदारों पर भी आफत आई हुई जान उसका मजबूत कलेजा कांप जाता, क्योंकि बदनामी के साथ अपनी जान देना वह बहुत ही बुरा समझता था और लड़ाई में वीरता दिखाने के समय वह अपनी जान की कुछ भी कदर नहीं करता था । इसी के साथ-साथ वह जमाने की चालबाजियों पर भी ध्यान देता था और अपनी लौंडियों की बेमुरौवती याद कर क्रोध के मारे दांत पीसने लगता था । कभी-कभी वह इस बात को भी सोचता कि आज महाराज ने इतने आदमियों को भेजकर मुझे क्यों बुलवाया ? इस काम के लिये तो एक अदना नौकर काफी था । खैर इस बात का तो यों जवाब देकर अपने दिल को समझा देता कि इस समय महाराज पर आफत आई हुई है, बेटे के गम में उनका मिजाज बदल गया होगा, घबराहट के मारे बुलाने के लिए इतने आदमियों को उन्होंने भेजा होगा ।
इन्हीं सब बातों को सोचते हुए महाराज के आदमियों के पीछे-पीछे बीरसिंह जा रहा था । जब उस अंगूर की टट्टी के पास पहुंचा जिसका जिक्र कई दफे ऊपर आ चुका है या जिस जगह अपने निर्दयी बाप के हाथ में बेचारी तारा ने अपनी जान सौंप दी थी या जिस जगह कुंअर सूरजसिंह की लाश पाई गई थी तो यकायक दोनों मशालची रुके और चौंक कर बोले, "हैं ! देखिए तो सही यह किसकी लाश है ?"
इस आवाज ने सभी को चौंका दिया । दोनों मुसाहबों के साथ बीरसिंह भी आगे बढ़ा और पटरी पर एक लाश पड़ी हुई देख ताज्जुब करने लगा ! चाहे यह लाश बिना सिर की थी तो भी बीरसिंह के साथ-ही-साथ महाराज के आदमियों ने भी पहिचान लिया कि कुंअर साहब की लाश है । अब बीरसिंह के ताज्जुब का