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बहू !--फिर इसने के ढग से कहा-नहीं, पाप हुआ हो तो इन्हे भो भेज परि- ग्रामा करने के लिए भेज दीजिए ! किणोरी को यह बात तौर-सी लगी। उसने पिढ्नतें हुए पन्हा-चली जाओ, आज से मेरे घर को न ना ! प्टी सिर नीचा विःये ची गई । किशोरी ने फिर पुफारा--विजय ! विजय लड़खलाती हुञा भीतर आया और दिनेश बैठ गमा। किशोरी से | मदिरा यी गन्ध छिन न सकी। उसने शिर पकड़ लिया । यमुना में विजय को मोरे से लिंदा दिया। यह सो गया। विजय ने अपने राम्वन्ध को किम्बदन्दिरामो को और भी जटिल बना दिमा, यह उन्हें सुलझाने की चेष्टा भी न करता था । किशोरी ने योजना छोड़ दिया था। किशोरी कमी-कमी ची–यदि ग्रीषद इस सगय र जी को सम्झान लेते ! परन्तु वह वही दूर की बात थी। एक दिन विशय और शिडोरी की मुठभेड़ हो गई। बात यह है कि निरंजन | ने इतना ही कहा कि मद्यपों के संसर्ग में रहना, इमारे लिए असम्भय है! विजय ने सपार कहा–अछी बात है, दूसरा स्थान खोज तीजिए । ढोग से दूर रहुना मुझे भी निकर है । किशोरी आ गई। उसने कहा—पिंजय, तुम इतने निर्णय हो ! अपने अपराधो को रामझकर नज्जित बप नही हो । नौ फी खुमारी से भरी आँखों को उठाकर विजम ने किशोरी की और देख्या और कहा-मैं अपने कम पर हँसता है, लज्जिरा नहीं होता। शिन्हे सुज्जा नडो प्रिय हो, ये उरो अपने कामों में प्रोजे । किशोरी मर्माहत होकर उठ गई, और अपना सामान पाने मग । उस दिन फार्म लौट जाने का उराका छ निश्चय हो गया। यमुना चुपचाप बैठी थी । इससे किशोरी ने पूछा—अमुना, क्या तुम न पत्तोगी ? । यशो, मैं अब हो नहीं जाना चाहती; मही शून्दायन में भीख मांगकर जीवन बिता कुंग ! यमुना, पूव समझ नो । मैंने कुछ पगे इकट्ठे कर लिगे हैं, उन्हें किंची मन्दिर में गया दंगौ जौर | दो दो भात खाकर निर्बाह कर सँग। अच्छी बात है ! किशोरी छकर उठी । | ममुना फी आख नै बह चले । यह भी अपनी गठरी संफर किशोरी के जाने के पहले ही उस घर से निकलने के लिए प्रस्तुत थी। कंवत : ८५