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के पीछे बढी हो गई । यमुना एवः यार सहुम इझी । उसने फिर दैथा--जस ने हाथ न लोटा उठाया और उसको सरल पदार्थ विजम के सिर पर चैत्र दिया । विजय के उच्ण मस्तक को कुछ गीतलता भली छगी। घूमकर देखा तो घंटी खिलखिलाकर इस रही थी। बहू आने इन्द्रिय-जगत् मै मैदा, माह में चक्कर खाने लगी । चारों ओर विद्यतु-केश चमकते, दौड़े थे। युबवः विजय अगने में न रह सका, छपने घंटी वन हाम पघट्टकर प्रा बनवाने, तुम रंग चॅटेलकर उसकी तलता है सकतौ हौ कि इस रंग की-सी ज्वाला—ना ज्याला ! ओह, जसन हो रही हैं घंटी! आम-धेयम भ्रम है । वेलो ३, मेरे पास दाम न था—रंग फीफा होगा विजय बाबू 1 हाड़-मांस के वास्तविक जीवन का सत्य, यौवन, आने पर उसका अनि में जानकर बुलाने की सुन रहती हैं। जो चले जाने पर अनुभूत होता है यह यौवन, धीवर के लहुरीले जाज में फंसे हुए स्निग्ध मत्स्य-सा तड़फड़ाने वाला गौयन, आसन से दबा हुआ पंचवपॉय अपच सुरंग वैः समान पृथ्वी को कुरेदने- याला वरांपूर्ण यौवन, अधिक न सम्ले सवा, विजय ने पंडी को अपनी मनिष राजाओं में लपेट लिया और एक दृढ़ तथई दीर्घ चुम्मत से रंग का प्रवियाँ विथा । गहू सजीव और उम्ण आलिंगन, विजय वैः मुनाजीयन का प्रथम उपहार पा--चरम लाभ था 1 कगाल को जैसे निधि मिली हौ ! यमुना और न देव सनी, उसने बिमी चन्द कर दी । इरा घाब्द में दोनों की भन्नग पार दिया। उसी रामग' हमकों के रुकने का शब्द बाहर हुआ । मुना ने उतर आई, किया खोजने । किशोरी भीतर आई। | अय पदों और विजय पास-पास बैठ गये थे। किशोरी ने पूछा विजय कहाँ हैं ? यमुना कुछ न बोलः । दाँटगार किशोरी ने घर–बौनती वय नहीं ममुना यमुना ने कुछ न कहकर खिड़की खोल दी। किशोरी ने देखा निंपरी चांदनी में एक स्त्री और पुरष कदाब के नीचे बैंठे हैं । वह गरम हो उठी। इसने वहीं से पृारा–घंटी । मंडी भएर आईं। विजय का साहस न हुआ, यह वही से रन 1 किशौर्य ने भू-घंटी, क्या तुम इतनौ निर्लज्ज हो । | में नया गान् कि लन्ना किसे कहू ६ । श्रन में तो सभी हाल में रंग डाली हैं, मैं भी रंग दालने आई। विज़प बानु को रग से चोट सो म सगी होगी किशोरी ६५ : प्रसार पामम