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विजय ने कहा--बैठोगे या घर के भीतर असें । नही विजय [ मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता है । घण्टौ । तुम घर जा रही । हो न ! भयभीत घण्ट्री उठफर धीरे से चली गई। विजय नै सहमते हुए पूछा- क्या कहना चाहते हो ! तुम इस लड़की को साथ लेकर इस स्पतन्त्रता गे क्यो बदनाम हुआ साहुते यद्यपि मैं इसका उत्तर देने को बाध्य नहीं मंगल, एक भारत में भी तुमसे पूछना चाहता हूँ-बताओ तो, मैं यमुना के चाय भो एकान्त में रहता है, व तुमको संदेह क्यों नही होता ! मुझे उसके चरित्र पर विश्वास है। इसीलिए कि तुम भीतर से उसे प्रेम परते हो ! अच्छा, यदि मैं घण्टी से माह करना चाहें, तो तुम पुरोहित बनो । जिम, तुम अतिवादी हो, इद्धत हो । अच्छा हुआ कि मैं वैसा संमतमा मटाचारी नहीं हैं, जो अपने चरित्र की दुर्बलता के कारण मित्र से भी मिलने में संकोच करता है। मेरे यहाँ प्रायः तुम्हारे न आने का यही तो कारण है कि तुम यमुना की...। तूप रस्रो विजय ! उच्छृङ्खलता फी भी एक सीमा होती है । अच्छा अपने दो। घंटी के चरित्र पर विश्वास नहीं, तो क्या समाज और धर्म का यह कर्तव्य भी कि उसे किसी प्रकार अपेतम्य दिया जाम, उसका पर्य सरल र दिया जाए ? यदि मैं घंटी से याहू फरू, तो गुम पुरोहित पनाग । बौलो, मैं इसे करके माप झगा या पुग्म । यह पाप हो या पुप्प, तुम्हारे लिए हानिकर होगा। | मैं हानि उठाकर भी समाज के एक व्यक्ति का कल्याण कर स तो वया पाग करूगा ? उत्तर दी, देखें तुम्हारा धर्म या व्यवस्था देता है ।—विजय अमनी निश्चित विजय से पूल हा मा ।। वह पृन्दावन की एवः कूपमात मान- बिया हैं विजय । सहज में पच जाने वाला और घोरे रौ गते से उतर जाने वाला स्निग्ध पदार्थ सभी प्रात्मस्राव कर लेते हैं, किन्तु कुछ त्याग–यो भो अपनी महवा का त्याग --जय अर्म के आदर्श में नहीं है, तर तुम्हारे धर्म को मैं ममा क मंगल ! विजय । मैं तुम्हारा इतना अनिष्ट नहीं है। कक्षा । इरो स्याग तुम भले ही समश सो; पर इसमें क्या तुम्हारी दुर्बतता या तार्यपूर्ण अंश नहीं है ? मैं ८३ : प्रसाद घामम