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वई दिन हो गये, विजय किसी से कुछ बोलता नहीं । समम पर गोजन कर तैना और सौ रहता है। अग्निः समय उसका, मकान के पास हो करौल को साहियों की टट्टी के भीतर सगै हुए कदम के नीचे बीतता है। वहीं बैठकर यह कभी उपन्यास पढता और कभी हारमोनिमम बनाता है। अंधेरा हो गया था, बहू कदम्ब के नीचे बैठा हारगोनियम बजा रहा था। |'पनले घंटी ची आई । चराने फहा—ानुन, आप तो बड़ा अण्डा हारमोनियम बजाते हैं। वह पास ही बैठ गई। तुम कुछ गाना जानती हो ? जजयासिनी और कुछ चाहे में जानें, पितु फान गाना तो उसी के हिस्से अच्छा सो कुछ गाभी, देहूँ मैं धजा सकता है। जनबाला पटी एक गीत गाने भगी- “पिपा ः एपा में परी है गाँठ | मैं पनि जतन में सोनू ? सद सJिu' मिति फाग मनाचत में यय-सी हो ! अथ व फागुन पिया मधे निमोहिया में बैठी विष घोलें ! पिया कै---- दिन प्रतिवर उसने गाया। मादकता गो इसके सहरीले कण्ठ-स्गर में, और पासता घी विजय की पदों पर दौडने बानी उँगलियों में ! वे दोनों तन्मय थे। उसी राह में जाता हूजा मंगल—प्राणिक मंगल-भी, उस हृदय-द्रायन गति से विमुग्ध होकर खड़ा हो गया। एक बार उसे मम हुआ, यमुना तो नही है | ह भीतर चला गया। देखते ही पंचत एण्टो हुरी पडी ! भोली आइए | गैह्मरासैनी ! कंकास : ८१