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अब किशोरी भीतर चली गई, जो बाहर खड़ी हुई दोनों की बातें सुन रहो थी। वह बोली–मंगल ने ठीक कहा। विजय,तुमने अच्छा काम नहीं किया। सब लोगों का उत्साह ठंडा पड़ गया। पूजा का आयोजन अस्त-व्यस्त हो गया। किशोरी की आखें भर आईं थी। उसे बड़ा क्षोभ था; पर दुलार के कारण विजय को वह कुछ कहना नही चाहती थी।

मंगल ने कहा- माँ ! विजय को साथ लेकर हम इस उत्सव को सफल बनाने का प्रयत्न करेगे, आप दुःख न दीजिए।

किशोरी प्रसन्न हो गई। उसने कहा- तुम तो अच्छे लड़के हो। देख तो विजय ! मंगल की-सी सुबुद्धि सीख!

विजय हँस पड़ा। दोनों देव-मन्दिर की ओर चले।

नीचे गाड़ी की हरहराहट हुई, मालूम हुआ—निरंजन स्टेशन चला गया।

उत्सव में विजय ने बड़े उत्साह से भाग लिया; पर यमुना सामने न आई, तो विजय के सम्पूर्ण उत्साह के भीतर यह गर्व हँस रहा था कि मैंने यमुना का अच्छा बदला निरंजन से लिया।

किशोरी की गृहस्थी नये उत्साह से चलने लगी। यमुना के बिना वह पल भर भी नहीं रह सकती। जिसको जो कुछ माँगना होता, यमुना से कहता। घर का सब प्रबन्ध यमुना के हाथ में था!यमुना प्रबन्धकारिणी और आत्मीय दासी भी थी।

विजयचन्द्र के कमरे की झाड-पोंछ और बिना-उठाना सब यमुना स्वयं करती थी। कोई दिन ऐसा न बीतता कि विजय को उसकी नई सुरुचि का परिचय अपने कमरे में न मिलता। विजय के पान खाने का व्यसन बढ़ चला था। उसका कारण था यमुना के लगाये स्वादिष्ट पान। वह उपवन से चुनकर फूलो की माला बना लेती। गुच्छे सजाकर फूलदान में लगा देती। विजय की आँधी में उसका छोटे-से-छोटा काम भी कुतुहन-मिश्रित प्रसन्नता उत्पन्न करता; पर वह एक बात से अपने को सदैव बचाती रही--उसने अपना सामना मंगल से न होने दिया। जब कभी परसना होता–किशोरी अपने सामने विजय और मंगल दोनों को खिलाने लगती। यमुना अपना वदन समेटकर और लम्बा घूंघट काढ़े हुए परस जाती। मंगल ने कभी इधर देखने की चेष्टा भी न की, क्योंकि वह भद्र कुटुम्ब के नियमो की भली-भांति जानता था। इसके विरुद्ध विजपचन्द्र ऊपर से न कहकर, सदैव चाहता कि यमुना से मंगल परिचित हो जाय, और उसको यमुना की प्रतिदिन को कुशलता की प्रकट प्रशंसा करने का अवसर मिले।

५८:प्रसाद वाङ्मय