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मेरा रक्षाकवज है, बाल्यकाल से उसे मैं पहनता था। आज इसे तोड़ देने की इच्छा हुई है।

विजय ने उसे जेब में रखते हुए कहा-अच्छा, मैं ताँगा ले आने जाता हूँ। थोड़ी ही देर में ताँगा लेकर विजय आ गया। मंगल उसके साथ ताँगे पर जा बैठा। दोनों मित्र हँसना चाहते थे, पर हँसने में उन्हें दुःख होता था।

विजय अपने बाहरी कमरे में मंगलदेव को बिठाकर पर में गया। सब लोग व्यस्त थे। दो बज रहे थे। साधु-बाह्मण खा-पीकर चले गये थे। विजय अपने हाथ से भोजन का सामान ले आया। दोनो मित्र बैठकर खाने-पीने लगे।

दासियाँ झूठी पत्तल बाहर फेंक रही थी। ऊपर की छत से पूरी और मिठाइयों के टुकडों से लदी हुई पतले उछाल दी जाती थीं। नीचे कुछ अछूत डोम और डोमिनियाँ खड़ी थी, जिसके सिर पर टोकरियां थी, हाथ में डंडे थे---जिनसे वे कुत्तों को हटाते थे और आपस में मार-पीट, गाजी-गलौज करते हुए उस उच्छिष्ट की लूट मचा रखे थे–वे पुस्त-दर-पुश्त के भूखे।

मालकिन झरोखे से अपने पुण्य का यह उत्सव देख रही थी। और देख रही थी-एक राह की थकी हुई भूखी दुबल युवती थी। उसी भूख की, जिससे वह स्वयं अशक्त हो रही थी, यह बीभत्स लीला थी ! वह सोच रही थी--क्या संसार भर मे पेट की ज्वाला, मनुष्य और पशुओं को एक ही समान सताती है ? ये भी मनुष्य हैं और इसी धार्मिक भारत के मनुष्य–जो कुत्तों के मुंह के टुकड़े भी छीन कर खाना चाहते है। भीतर जो पुण्य के नाम पर---धर्म के नाम पर--गुलछरे उड़ रहे हैं, उसमें वास्तविक भूखो का कितना भाग है,यह पत्तलो के लूटने का दृश्य बतला रहा है। भगवान! तुम अन्तर्यामी हो ।

युवती निर्वलता से चल न सकती थी। वह साहस करने उन पत्तल लूटने वालो के बीच में से निकल आना चाहती है। वह दृश्य असह्य था; परन्तु एक डोमिन ने समझा कि ह उसी का भाग छीनने आई है। उसने गन्दी गालियाँ देते हुए उस पर आक्रमण करना चाहा, युवती पीछे हटी; परन्तु ठोकर लगते ही गिर पड़ी।

उधर विनय और मंगल में बात हो रही थीं। विजय ने मंगन से कहा-- यही तो इस पुण्य धर्म का दृश्य है ! क्यों मंगल ! क्या और भी किसी देश में इसी प्रकार का धर्म-संचय होता है ? जिन्हें आवश्यकता नहीं, इनको बिठाकर आदर से भोजन कराया जाय केवल इस आशा से कि परलोक में वे पुष्प-संचय का प्रमाण-पत्र देंगे, सावा देने, और इन्हें, जिन्हें पेट में सता रक्खा है, जिनको भूख ने अधमरा बना दिया है, जिनकी आवश्यकता नंगी होकर वीभत्स नृत्य

कंकाल:४८