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जब हरद्वार में श्रीचन्द्र किशोरी को लिवा ले गये और छ: महीने बाद एक पुत्र उत्पन्न हुआ, तभी से किशोरी के प्रति उनकी घृणा बढ़ गईं। वे अपने भाव, समाज में तो प्रकट नहीं कर सके, पर मन में एक दरार पड़ गई। बहुत सोचने पर श्रीचन्द्र ने यही स्थिर किया कि किशोरी काशी जाकर अपनी जारज-संतान के साथ रहें और उसके खर्च के लिए वह कुछ भेजा करे।

पुत्र पाकर किशोरी पति से वंचित हुई, और यह काशी के एक भुविस्तृत गुह में रहने लगी। अमृतसर में यह प्रसिद्ध किया गया कि यहाँ माँ बेटों का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता।

श्रीचन्द्र अपने कार-बार में लग गये—वैभव का परदा बहुत मोटा होता है। किशारी के भी दिन अच्छी तरह बीतने लगे। देवनिरंजन भी कभी-कभी काशी आ जाते। और उन दिनों किशोरी की नई सहेलियाँँ भी इकट्टी हो जाती।

बाबाजी की काशी में बड़ी धूम थी। प्रायः किशोरी के ही घर पर भण्डारा होता। बही सुच्याति फैल चली। किशारी की प्रतिष्ठा बढ़ी। वह काशी की एक भद्र महिला गिनी जाने लगी। ठाकुरजी की सेवा बड़े ठाट में होती–धन की कमी न थी, निरंजन और श्रीचन्द्र दोनों ही रूपयें भेजते रहते।

किशोरी में ठाकुरजी जिस कमरे में रहे थे, उसके आगे दालान था संगमर्मर की चौकी पर स्वामी देवनिरंजन बैठते। चिकें लगा दी जातीं। भक्त महिलाओं का भी समारोह होता। कीर्तन, उपासना और गीत की धूम मन जाती।उस समय निरंजन सचमुच भक्त बन जाता।उसका अद्वैत कान उ निस्सार प्रतीत होता, क्योंकि भक्ति में भगवान का अवलम्बन रहता है। सांंसारिक राब अपदा-विपदाओं के लिए कच्चे ज्ञानी को अपने ही पर निर्भर करने में बड़ा कष्ट होता है। इसलिए गृहस्थी के सुख में फँसे हुए निरंजन को बाध्य होकर भक्त बनना पड़ा। आभूषणो से लगी हुई वैभव-मूर्ति' के सामने उसका कामना

४४:प्रसाद वाङ्मय