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है और उतने ही अधिक परिमाण में निराशावादिनी भी होती है।भला मैं तो पहले टिका जाऊँ ! फिर तुम्हारी देखी जायगी।-- मंगलदेव चला गया।तारा ने उस एकान्त उपवन की ओर देखा-शरद का निरभ्र आकाश छीटे-से पवन पर अपने उज्ज्वल आतप के मिस हँस रहा था। तारा सोचने लगी--

यहाँ से थोड़ी दूर पर मेरा पितृ-गृह;पर मैं वहाँ नहीं जा सकती। पिता समाज और धर्म के भय से त्रस्त हैं।ओह, निष्ठुर पिता।अब उनकी भी पहली सी आय नही,महन्तजी प्रायः बाहर,विशेषकर काशी रहा करते हैं।मठ की अवस्था बिगड़ गई है। मंगलदेव—एक अपरिचित युवक-केवल सत्साहस के बल पर मेरा पालन कर रहा हैं। इस दासवृत्ति से जीवन बिताने से क्या वह बुरा था,जिसे मैं छोड़ कर आई। किस आकर्षण ने यह उत्साह दिलाया और अब यह क्या हुआ, जो मेरा मन ग्लानि का अनुभव करता है,परतंत्रता से। नहीं, मैं भी स्वावलम्बिनी बनूँगी; परन्तु मंगल !वह निरीह निष्पाप हृदय !

तारा और मंगल-दोनों के मन में संकल्प-विकल्प चल रहे थे। समय अपने मार्ग चल रहा था। दिन पीछे छूटते जाते थें। मंगल की नौकरी लग गई। तारा गृहस्थी जमाने लगी।

धीरे-धीरे मंगल के बहुत से आर्य मित्र बन गये। और कभी-कभी देवियाँ भी तारा से मिलने लगी। आवश्यकता से विवश होकर मंगल और द्वारा ने आर्य-सामाज का साथ दिशा था।मंगल स्वतन्त्र विचार का युवक था। उसके धर्म-सम्बन्धी विचार निराले थे; परन्तु बाहर से वह पूर्ण आर्य-समाज था। तारा को सामाजिकता बनाने के लिए उसे दूसरा मार्ग न था।

एक दिन कई मित्रों के अनुरोध से उसने अपने यहाँ प्रीतिभोज दिया। श्रीमती प्रकाशदेव, सुभद्रा, अम्बालिका,पीलोमी आदि नामंकित कई देवियाँ, अभिमन्यु,वेदस्वरुप, ज्ञानदत्त और वरुणप्रिय, भीषव्रत आदि कई आर्यसभ्य एकत्रित हुए।

वृक्ष के नीचे कुर्सियाँँ पड़ी थी। सब बैठे थे। बातचीत हो रही थी। तारा अतिथियों के स्वागत में लगी थी। भोजन बनकर प्रस्तुत था। ज्ञानदत्त ने कहा अभी ब्रह्मचारीजी नहीं आये !

अरुण--आते ही होंगे।

वेद–तब तक हम लोग संध्या कर ले।

इन्द्र--यह प्रस्ताव ठीक है; परन्तु लीजिए वह ब्रह्मचारीजी आ रहे हैं।

एक घुटनो से नीचा लम्बा कुरता डाले, लम्बे बाल और छोटी दाढ़ी वाले गौरवर्ण युवक को देखते ही नमस्ते की धूम मच गई।ब्रह्मचारी बैठे।मंगल

१६:प्रसाद वाङ्मय