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हरद्वार की बस्ती से अलग गंगा के तट पर एक छोटा-सा उपवन है। दो-तीन कमरे और दालानो का उसी से लगा हुआ छोटा-सा घर है। दालान में बैठी हुई तारा माँग सवार रही है।अपनी दुबली-पतली लम्बी काया की छाया प्रभात के कोमल आतप में डालती हुई तारा एक कुलवधु के समान दिखाई पड़ती है। बालों से लपेटकर बँधा हुआ जूड़ा, छलछलाई आँखे, नमित और ढीली अंगलता, पतली-पतली सी उँगलियाँ, जैसे चित्र सजीव होकर काम कर रहा है।पखवारों में ही तारा के कपोलों के ऊपर और भदों के नीचे श्याम-मण्डल पड़ गया है। वह काम करते हुए भी, जैसे अन्यमनस्क-सी है।अन्यमनस्क रहना ही उसकी स्वाभाविकता है।आज-कल उसकी झुकी हुई पलकें काली पुतलियों को छिपाये रखती हैं। वे संकेत से कहती हैं कि हमें कुछ न कहो,नहीं बरसने लगेंंगी।

पास ही तून की छाया में पत्थर पर बैठा हुआ मंगल एक पत्र लिख रहा है। पत्र समाप्त करके उसने तारा की ओर देखा और पूछा--मैं पत्र छोड़ने जा रहा हूँ,कोई काम बाजार का हो,तो करता आऊँ।

तारा ने पूर्ण गृहिणी-भाव से कहा-थोड़ा कड़वा तेल चाहिए,और सब वस्तुएँ हैं।मंगलदेव जाने के लिए उठ खड़ा हुआ।तारा ने फिर पूछा—और नौकरी का क्या हुआ?

नौकरी मिल गई है।उसी की स्वीकृति-सूचना लिखकर पाठशाला के अधिकारी के पास भेज रहा हूँ। आर्य-समाज की पाठशाला में व्यायाम-शिक्षक का काम करुँगा।

वेतन तो थोड़ा ही मिलेगा। यदि मुझें भी कोई काम मिल जाए, तो देखना,मैं तुम्हारा हाथ बँटा दूँगी।

मंगलदेव ने हँस दिया और कहा--स्त्रियाँ बहुत शीघ्र उत्साहित हो जाती

कंकाल:१५