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बरसात के प्रारम्भिक दिन थे । अभी सन्ध्या होने में नितम्ब था। घशाश्वमेध घाट वाली चुंग-चौकी से सटा हु जो पीपल का वृद्दी है, इस नीचे कितने ही मनुष्य कहलानेवाले प्राणियों का ठिकाना है । पुण्य-स्नान करने वालो युर्दियों की बांस की आती में से निकलकर बार-बार माम रागी के फटे अंघल में पड़ जाते हैं, उनके कितनों के विकृत अंग की पुष्टि होती है। कार में बईयदे अनायालय, बड़े-बड़े अनसन हैं, और उनमे संचालक स्वर्ग में जाने वाली आगरा-कुसुमो की सीढ़ी थी कल्पना छाती फुला कर करते हैं पर इन ती झुकी हुई यमर, होरियों से भरे हाथ थाली रामनामी ओढ़े हुए, अन्नपूर्णा को प्रतिमा ही हौ दाने ६ देती हैं। दो मोटी अँटी पर पड़ा रख कर इन्हीं दोनों को भी हुई, कुडो की वन है कितनी क्षुधा-नालाएँ निवृत्त होती हैं—यह एप दर्शनीम दृश्य है ! सामने नाई अपने टाट झिकर थान बनाने में लगे हैं, वे पीपल नी बढ़ से टिके हुए देवता के परम भक्त हैं, स्नान करके अपनी कमाई के फल-फूल रही पर चढ़ाते हैं। थै नान-भन्न देयता, भूखे-प्यासे जीवित देवा, जया पुजा के अधिकारी नहीं ? उई में फटे कम्बन गर ईंट का तकिया लगामे, विजयं भी गढ़ा है। अल इराक पहचाने जाने की तनिनः ) सम्भावना नहीं । छाती तब हुहियों को ढांचा और पिंडलियों गर सुजन की चिकनाई, बातो के भनेधन में बड़ी-बड़ी थे और उन्हें बाँधे हुए एक पीड़ा, इन रावों ने मिलकर विजय ये-'मे' को–छिपा लिया था । वह ऊपर लटकती हुई पीपल बी पत्तियों का हिलना देख रहा था । व चुप धा । दूसरे, अपने सायंकाल के भोजन के लिए व्यग्न थे। | अँधेरा हो पता, राधि आई,-कितनो के विभव- जिस पर चाँदनी तन्ने और कितनों के अन्धकार में अपनी व्यंग को हुसी छिन । विजय निश्चेष्ट घी । उसका भालू उसके पाए पुगेकर आया, इसने इसार किया । शिय के मुंह पर तो आई, उसने धीरे से हाभ उठाकर उसके चिर पर रक्षा, पूछा--भानु ? ३१३: प्रसाद यामम