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सरा चिल्ला पड़ी, उसने कहा----सच कहती हो चाची ? सप तारा ! वह 'काशी के एक धनी श्रीचन्द्र और किशोरी बहु का दप्तम. पुत्र है; मैंने उसे गहू! बिसा हैं । क्या इसके लिए तुम मुटौ क्षमा करोगी बेटी ? । तुमने मुझे जिला लिपी, अहा ! मेरी चाय, तुम मेरी जरा जन्म यी गाता हो, अत्र में सुखी हूँ ! --ह जैसे एकः क्षमा ने निए पागल हो गई । चानी के गले से लिपटे र रो उठीं । वह रोग आनन्द का था । चाची ने उसे सरवना ६ । इधर घण्ट्रो और नदिया भी पाम आ रही थीं। | चारा ग घोर से काहू–मेरी चिंनती हैं, अभी इस बात को किस से कह्मायह मेरा ‘गुप्त धन है ।। चाची ने कहा---ग्रमुनी माक्षी हैं । चारों के मुख पर प्रसन्ना थी । चारा व हृदय की धा। गव नान वर* दूसरी माते बरती हुई आश्रम शौटीं । नातिका में कहा--अपनी सम्पत्ति मधे कम तो हैं बहू स्त्रियों की स्वयंसेविका दीं पायाला चलावे । मैं उसकी पहली शनी होगी । और तुग ग्दिो ? । एप्टी ने कहा--में भो ! चहा, स्त्रियों को स्वय धर पर जाकर अपनों | स्त्रिया यनी की सेवा मरी गाडिए । पुरुप उन्हें नहीं दिया और न । दना चाहते है, जितना उनके स्वार्थ में बाधक न हो। रों के भीतर अन्त्ररुरि है, धर्म के नाम पर इंाग व पूजा है, और पाल तथा अचार व नाम पर हुयी । बहने अत्याचार वे परदे में छिपाई गई हैं, उनकी सेवा परगी । धरी, उपदेशिका, धर्मी-प्रचारिका, राहचारिणी बनकर उनकी सेवा करूंगी । राब प्रसन्न मन में आश्रम में पहुंच गई। होम : २०१