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गाला और सरल कमर कुकर मंगल को संवा मरने लगी । वैद्य ने देवकर कहा—अभी पाँच दिन में यह ज्जर उतरेगा । बीच में सावधानी की आवश्यकता है । कुछ चिन्ता नही । —अमुना सुन रहीं थीं, यह कुछ निश्चिन्त हुई । | घर संा में बहुत-से बाइरी मनुष्य भी हो गये थे । इन लोगो के लिए गोस्वामीजी राम-कथा कहने लगे थे । आज मंगल ने ज्यर का वेग अत्यन्त भयानक था। गाना पसि चैड़ा हुई। गंगल मुख पर पसीने की चुदो हो पई में पोछ रहीं थीं 1 बार-बार प्याप्त है। मंगल का मुंह भूखता था। वैद्यजी ने वहा —आज की रात बीत जाने पर यह निश्चय वा हो जायगा । गाला की आँखों में वैयदी और निराशा गान रही थी। राना में दूर से यह सब देखा 1 अग्नी रत आरम्भ हुई थी । अवका ने संघ में प्रांगण में लगे हुए विशाल वृंदों पर अपना दूर्ग बना लिया था । सना का मन व्यथित हो जी । वह धीरे-धीरे एक बार तृप्ग दी प्रतिमा के सम्मुड़े आई । ने प्रार्थना की। वहीं सरला, जिसने एक दिन का घा—भगवान् वा दुः-दान को अचन पसारकर सुंगी-आज मंगल की प्राणभिक्षा में लिए ऑचल पसारने लगी। यह कंकाल का गर्दै था, जिसके पास कुछ या ही नहीं। वह विराको रक्षा चाहृती ! सरला वें पारा तब क्या था, जो वह भगवान् के दु:-दान में हिचकत । हुताश जीवन तौ साहसिक पेन हो जाता है; परन्तु आज उरी कथा सुनकर विश्वास हो गया था कि विपत्ति में भगवान सहायता के लिए अवतार लेते हैं, अते है भयभीत के उार के लिए । अहा, मानव-दर्श गौ स्नेह-दुर्वलता कितना महत्त्व रखती हैं ! यहाँ तो उसके यांत्रिवः जीवन की ऐसी शक्ति है। प्रतिमा निश्पल रही, तन भी इसका हृदय आशापू था । वह खोजने लगी--कोई मनुप्य मिलता, कोई देयता आकर अमृत-पात्र मेरे हाथो में रख जाता । 'मंगल ! मंगल !'–वती हुई वह आश्रम के बाहर निकल पड़ी। उसे निवास था कि फाई देनी सहायता मुझे अचाननः मिल जायगी अवषय । पदि मंगल जी इतर को गाला कितना प्रसन्न होती । —हीं बड़बड़ाती हुई वह धमुना के द की ओर बगै लगी । अन्धकार, गै पर दिखाई न देवा या; पर बहू की जा रही यो । यमुना के पुलिन में नैश अन्धवार चिर रहा था । तारों की सुन्दर पंक्तियाँ नवजाती हुई अन्त में जैसे घूम रही थी। उनके आलोक में पमुगप को मिर गम्भीर प्रवाह जैसे अपनी करूणा में इत्र का । झरना में देखा---एक परि १६४ : प्रोटि याङ्मय