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तमोली ने टट्टर के पास ही भीतर, दरी बिछा दी थी। गिरजा चुपचार चीमने पूले हुए कमलों को देखते थे। ईइ अमें सिंचाई के पृरवट ऊँ शब्द दूर है। | जरा निस्तब्धता को भंग कर देते थे। पवन की गरमी से टट्टर बन्दै फर देने पर भी उग्र सुरत की इक्ष से बाहर का दृश्य दिखाई पड़ता था। हावी भूमि में दिये की आवश्यकता न थी। पास ही अाम में भी भ्यत बिछाकर दो सेवको के साथ सोमदेब बैठा या | मन में सोच रहा था—मह सब रुपये की सनष है ! ताल के दिनारे, पत्थर की शिक्षा पर, महूए की छाया में, एक किशोरों और एक स्वसजी दाढीवाला मनुष्य, तम्बी सारंगीं लिये, वियाम कर रहे हैं। बालिका की बयस चौदह से छापर नहीं; युएस पास के समीप 1 वह देखने से मुसलमान जान पड़ता था। दिहाती इदा उ* अंग-अंग से सजाती थी !' चुटनों तक हाथ-पैर धो, मुंह पीछकर एक बार अपने में आकर उसने ऑउँ पाडकर देगा—उरागै कहा-शबनम ! देखो, यहाँ कोई अमीर हिंषा मालूम पड़ता है। ठंडी हो नै हो, तो चलो वेटी ! कुछ मिल जाए तो अचरज नही। शवनग यत्र रॉनाने लगी, उराको सिडन हुद्दाकर अपनी वेशभूषा को ठीक कर लिया। आभूपयों में दो-चार काँच की चूड़ियाँ और नाक में न जिसमे मोती लटमाकर अपनी फाँसी छुड़ाने के लिए होटपटाता था। ट्टर ६ पास पहुँच गये। मिरजा ने देशा--बालिग की वेशभूषा में कोई विशेषता नहो; परन्तु परिकार था। उसके पास कुछ नहीं या–यसन, अलंकार या भायो यी भरी हुई नदी सा रोक्न । कुछ नहीं, यो फेवल दो-तीन इलाममी मुष-रेखाएं —जो आगामी सौन्दर्य की यात्म रेखाये थी, जिनमें मोयन का रंग भरमा कामदेव ने अभी यकी रख छोड़ था । कई दिन का पहना हुआ ययन भी मजिग हो चला था; पर कौमार्य में वशता थी । और हु क्या ! सूध कषों में दोदो तीन-तीन लात मुहाँसे । तारुण्य जैसे अभिव्यक्ति वा भूखा था, 'अभाव अभाव!' —हूकर जैसे कोई उसकी मुरमई अषों में पुषार उठता था। गिरजा कुछ गिर छठामार वॉश से बैद्यनै गा ।। सरकार ! कुछ नुनाऊँ ?--बाढ़ाते हैं हर घोडेकर कहा। सोमदेव ने बिगड़कर नहा--जालो अभी सरकार वियाम गर रहे हैं। तो तुम लोग भी बैठ जाते है, आप तो मेट भर जायगा-फहमर वह शारंगी वाला वहां गे भूमि शढिने लगा। शखाकर सोमदेव ने बड़ासुम भी एक विनाश मूर्ख हो ! कह दिमा न, जायो । १४४ : प्रसाद वाइमप