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अपने हायों मैं आँख को ढक लिया। कुछ कान के बाद बोली-अच्टा, तो विजय की खोज़ जाता है ! गाही पर निरंजन का सामान लद गगा और बिना एवः शब्द है वह रटेशन चला गया । णारी अभिमान और क्रोम से भरी चुपचाप बैठी ही । आज यह अपनी ही प्टि में तुच्छ नॅचने लगी। उसने बड़बड़ाते हुए फहा स्त्री कृष्ट नही हैं, कैयन पुरसो की पूंछ है। विलक्षणता यह है कि यह पूंछ कभी-कभी अलग भी रख दी जा सकती है ।। भणी जप्त गौचने से अब नहीं मिला था फि गाड़ियों के 'खईबड़' शब्द, और बनव-यंहलों के पदको वा फुगा नीचे हुआ। बहु मन-ही-मन सी हि नाबाजी का हुक्ष्म इतना बलवान नहीं कि मुझे यों ही छोड़कर चले जायं । इस समय स्त्रियों को विजय उसके सामने नाच उठी । वह फूल रही पी, छठीं नहीं; परन्तु जम' निगौ गं आकर कहा--बहूजी, पंजाब से कोई आये हैं, चन्यै स्वा एक लड़की और उनकी स्त्री हैं-अब वह एक पल-भर के लिए साटे में आ गई । उसी नीने माँझकर देखा, तो–थचन्द्र ! जराके साप शालनगर, कुरता ओढ़नी से सजी हुई एक रूपती रमणी चौदह साल बने सुन्दरी कन्या का हास पकड़े अद्ध घी । नौकर लोग सामान भीतर रख रहे थे । वहे किंवर्तव्यविमूढ़ होकर नीचे होकर उत्तर भाई 1 न जाने कहां की जा और दिया इराके अंग को घेरकर हँस रही थी। | श्रीचन्द्र ने इस प्रसंग को अधिक बढ़ाने का अवसर न देकर कहा-यह मेरे पड़ोसी, अमृतगर के व्यापारी, लाला...ही विधवा है; काशीयात्रा के लिए झाई हैं। | ओहो गरे भाग J–कहती हुई किशोरी उनका हाथ नाप भीतर ले घली 1 श्रीचन्द्र एक बही-सी घटना वो यी ही संवरते देयकए मन-ही-मन प्रसन्न हुए । मसीवाले नो भाड़ा देगर घर में आये । शव गौक में भह बात गुनगुना गई कि माझ आ गये हैं। | अलग होरी में प्रवागत मणी वा सव प्रबन्य ठीक किया गमा । श्रीचन्द्र नै नीचे की बैठक में अपना आसन जमाया। नहाने-धोने, खाने-पीने और विश्राम में समस्त दिन बीत गया । किशोरी ने अतिथि–सत्वार में पूरे मनोयोग से भाग मिा । कोई भी देय- कर मह नहीं कह सकता था कि किशोरी और श्रीचन्द्र बहुत दिनों पर मिले हैं। परन्तु अब तक श्रीचन्द्र ने विजय को नहीं पूछा, उसका मन नहीं करता था, मा साहस नहीं होता था। १११ : प्रभाव वाड्मय