वनलता––मान लीजिये कि हाँ मैं दुखी हूँ।
आनन्द––और वह दुःख ऐसा है कि आप रो रही हैं।
वनलता––(तीखेपन से) मुझे यह नहीं मालूम कि कितना दुःख हो तब रोना चाहिये और कैसे दुःख में न रोना चाहिये। आपने इसका श्रेणी-विभाग किया होगा। मुझे तो यही दिखलाई देता है कि सब दुखी हैं, सब विकल हैं, सबको एक-एक घूँट की प्यास बनी है।
आनन्द––किन्तु मैं दुःख का अस्तित्व ही नहीं मानता। मेरे पास तो प्रेम अमूल्य चिन्तामणि है।
वनलता––और मैं उसी के अभाव से दुखी हूँ।
आनन्द––आश्चर्य! आपको प्रेम नहीं मिला। कल्याणी! प्रेम तो......
वनलता––हाँ, आश्चर्य क्यों होता है आपको! संसार में लेना तो सब चाहते हैं, कुछ देना ही तो कठिन काम है। गाली, देने की वस्तुओं में सुलभ है; किन्तु सबको वह भी देना नहीं आता। मैं स्वीकार करती हूँ कि मुझे किसी ने अपना निश्छल प्रेम नहीं दिया; और बड़े दुःख के साथ इस न देने का, संसार का, उपकार मानती हूँ। (आँखों में जल भर लेती है, फिर जैसे अपने को सम्हालती हुई) क्षमा कीजिये, मेरी यह दुर्बलता थी।
आनन्द––नहीं श्रीमती! यही तो जीवन की परम आवश्यकता है। आह! कितने दुःख की बात है कि आपको.......
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