व्यंग्य से हँसने लगते हैं। रसाल जैसे अपनी भूल समझता हुआ चुप हो जाता है)।
वनलता––(भँवें चढ़ाकर तीखेपन से) हाँ, मानवता के नाम पर, बात तो बड़ी अच्छी है। किन्तु मानवता आदान-प्रदान चाहती है, विशेष स्वार्थों के साथ। फिर क्यों न झरनों, चाँदनी रातों, कुंज और वनलताओं को ही प्यार किया जाय––जिनकी किसी से कुछ माँग नहीं। (ठहर कर) प्रेम की उपासना का एक केन्द्र होना चाहिए, एक अन्तरङ्ग सभ्य होना चाहिए।
प्रेमलता––मानवता के नाम पर प्रेम की भीख देने में प्रत्येक व्यक्ति को बड़ा गर्व होगा। उसमें समर्पण का भाव कहाँ?
कुञ्ज––सो तो ठीक है, किन्तु अन्तरङ्ग साम्यवाली बात पर मैं भी एक बात कहना चाहता हूँ। अभी कल ही मैंने 'मधुरा' में एक टिप्पणी देखी थी और उसके साथ कुछ चित्र भी थे, जिनमें दो व्यक्तियों की आकृति का साम्य था। एक वैज्ञानिक कहता है कि प्रकृति जोड़े उत्पन्न करती है।
वनलता––(शीघ्रता से) और उसका उद्देश दो को परस्पर प्यार करने का संकेत करना है। क्यों, यही न? किन्तु प्यार करने के लिये हृदय का साम्य चाहिये, अन्तर की समता चाहिए। वह कहाँ मिलती है? दो समान अन्तःकरणों का चित्र भी तुमने देखा है? सो भी––
कुञ्ज––एक स्त्री और एक पुरुष का, यही न! (मुँह
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