आनन्द––दुःख के उपासक उसकी प्रतिमा बनाकर पूजा करने के लिये द्वेष, कलह और उत्पीड़न आदि सामग्री जुटाते रहते हैं। तुम्हें हँसी के हल्के धक्के से उन्हें टाल देना चाहिये।
मुकुल––महोदय, आपका यह हल्के जोगियारंग का कुरता जैसे आपके सुन्दर शरीर से अभिन्न होकर हम लोगों की आँखों में भ्रम उत्पन्न कर देता है, वैसे ही आपको दुःख के झलमले अंचल में सिसकते हुए संसार की पीड़ा का अनुभव स्पष्ट नहीं हो पाता। आपको क्या मालूम कि बुद्धू के घर की काली-कलूटी हाँड़ी भी कई दिन से उपवास कर रही है। छुन्नू मूँगफलीवाले का एक रुपये की पूँजी का खोमचा लड़कों ने उछल-कूद कर गिरा भी दिया और लूटकर खा भी गये, उसके घर पर सात दिन की उपवासी रुग्ण बालिका मुनक्के की आशा में पलक पसारे बैठी होगी या खाट पर पड़ी होगी।
प्रेमलता––(आनन्द की ओर देखकर) क्यों?
आनन्द––ठीक यही बात! यही तो होना चाहिये। स्वच्छन्द प्रेम को जकड़कर बाँध रखने का, प्रेम की परिधि संकुचित बनाने का यही फल है, यही परिणाम है। (मुस्कराने लगता है)।
मुकुल––तब क्या सामाजिकता का मूल उद्गम––वैवाहिक प्रथा तोड़ देनी चाहिए? यह तो साफ़-साफ़ दायित्व छोड़कर उद्भ्रान्त जीवन बिताने की घोषणा होगी। परस्पर सुख-दुख में
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