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एक घूँट

प्रेमलता––(स्वगत) अहा! कितना सुन्दर जीवन हो, यदि मनुष्य को इस बात का विश्वास हो जाय कि मानव-जीवन की मूल सत्ता में आनन्द है। आनन्द! आह! इनकी बातों में कितनी प्रफुल्लता है! हृदय को जैसे अपनी भूली हुई गीत स्मरण हो रही है। (वह प्रसन्न नेत्रों से आनन्द को देखती हुई कह उठती है) और!

आनन्द––और दुःख की उपासना करते हुए एक दूसरे के दुःख से दुखी होकर परम्परागत सहानुभूति––नहीं-नहीं, यह शब्द उपयुक्त नहीं; हाँ––सहरोदन करना मूर्खता है। प्रसन्नता की हत्या का रक्त पानी बन जाता है। पतला, शीतल! ऐसे सम्वेदनाएँ संसार में उपकार से अधिक अपकार ही करती हैं।

प्रेमलता––(स्वगत सोचने लगती है) सहानुभूति भी अपराध? अरे यह कितना निर्दय! आनन्द! आनन्द! यह तुम क्या कह रहे हो? इस स्वच्छन्द प्रेम से या तुमसे क्या आशा!

मुकुल––फिर संसार में इतना हाहाकार!

आनन्द––उँह, विश्व विकासपूर्ण है; है न? तब विश्व की कामना का मूल रहस्य 'आनन्द' ही है, अन्यथा वह 'विकास' न होकर दूसरा ही कुछ होता।

मुकुल––और संसार में जो एक दूसरे को कष्ट पहुँचाते हैं, झगड़ते हैं!

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