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एक घूँट


आलोक फैला देती है, जैसे उल्लास की मुक्त प्रेरणा फूलों की पंखड़ियों को गद्‌गद कर देती है, जैसे सुरभि का शीतल झोंका सबका आलिङ्गन करने के लिये विह्वल रहता है, वैसे ही जीवन की निरन्तर परिस्थिति होनी चाहिये।

प्रेमलता––किन्तु, जीवन की झंझटें, आकांक्षएँ, ऐसा अवसर पाने दें तब न! बीच-बीच में ऐसा अवसर आ जाने पर भी चिरपरिचित निष्ठुर विचार गुर्राने लगते हैं। तब!

आनन्द––उन्हें पुचकार दो, सहला दो, तब भी न मानें, तो किसी एक का पक्ष न लो। बहुत संभव है कि वे आपस मे लड़ जायँ और तब तुम तटस्थ दर्शक मात्र बन जाओ और खिलखिलाकर हँसते हुए वह दृश्य देख सको। देख सकोगे न!

प्रेमलता––असम्भव! विचारों का अक्रमण तो सीधे मुझी पर होता है। फिर वे परस्पर कैसे लड़ने लगें? (स्वगत) अहा, कितना मधुर यह प्रभात है! यह मेरा मन जो गुदी-गुदी का अनुभव कर रहा है, उसका संघर्ष किससे करा दूँ।

(मुकुल भवों को चढ़ाकर अपनी एक हथेली पर तर्जनी से प्रहार करता है, जैसे उसकी समझ में प्रेमलता की बात बहुत सोच-विचारकर कही गई हो। आनन्द दोनों को देखता है, फिर उसकी दृष्टि वनलता की ओर चली जाती है।)

आनन्द––(सँभालते हुए) जब तुम्हारे हृदय में एक कटु विचार आता है, उसके पहले से क्या कोई मधुर भाव प्रस्तुत नहीं

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