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एक घूँट

रसाल––उस दिन जो नई साड़ी मैं ले आया था उसे पहन आओ न!

वनलता––अच्छा-अच्छा, तुम जाते कहाँ हो? व्याख्यान कहाँ होगा? ए कविजी, सुनूँ भी।

रसाल––यही तो मैं पूछने जा रहा था।

(वनलता दाहिने हाथ की तर्जनी से अपना अधर दबाये, बायें हाथ से दहनी कुहनी पकड़े हँसने लगती है और रसाल उसकी मुद्रा साग्रह देखने लगता है, फिर चला जाता है।)

वनलता––(दाँतों से ओंठ चबाते हुए) हूँ! निरीह, भावुक प्राणी! जंगली पक्षियों के बोल, फूलों की हँसी और नदी के कलनाद का अर्थ समझ लेते हैं। परन्तु मेरे आर्तनाद को कभी समझने की चेष्टा भी नहीं करते। और मैंने ही......

(दूर से कुछ लोगों के बातचीत करते हुए आने का शब्द सुनाई पड़ता है। वनलता चुपचाप बैठ जाती है। प्रेमलता और आनन्द का बात करते हुए प्रवेश। पीछे-पीछे और भी कई स्त्री-पुरुषों का आपस में संकेत से बातें करते हुए आना। वनलता जैसे उस ओर ध्यान ही नहीं देती।)

आनन्द––(एक ढीला रेशमी कुरता पहने हुए है, जिसकी बाहें उसे बार-बार चढ़ानी पड़ती हैं बीच-बीच में चदरा भी सम्हाल लेता है। पान तो रुमाल से पोछते हुए प्रेमलता की ओर गहरी दृष्टि से देखकर) जैसे उजली धूप सबको हँसाती हुई

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