काले काले बादलों में चला जो बिजली सो थिर नहीं रहती । जैसे दुष्टशील अर्थात् दुष्ट स्वभाव वाले शैकों की मति ।
वृष्टि-विन्दु-अलाघातं सहन्ते पर्वतास्तथा ।
यथा वै कटुषचनानि शैवानों वैष्णवाः जनाः ॥
आकाश से होनेवाली दृष्टि की बंदों के जलाधात को पर्वत इस तरह अपने ऊपर सहलेते हैं जैसे वैष्णव लोग शैवो के कटु वचन सदा करते हैं।
- (अक्षदास का सरयूमास और गोमतीदास के साथ जाना)
कृष्ण--(धीरे से) भाई गोमतीदास, छिपकर देखो कि महन्त जी महाराज गंगागम को टीक ठीक उपदेश दे रहे हैं या पहले की तरह आज भी गषड़ घोटाले का सत्संग कर रहे हैं ।
माधो०--
रुक्ताः बहु मण्डूकाः घोषयन्ति समन्ततः ।
येन केन प्रकारेण परद्रव्यं समाहरेत् ।।
जलानि भूपतिवानि तथा योति सरोवरे ।
यथाशिष्याः सुरूपिण्याः गच्छन्ति गुरु सन्निधौ ।
(गौरिगिरि आंखे खोलकर देखने लगता है)
गौरी०--सीताराम ! सीताराम !!
माधो०--सुनो मतराज, बरसात में सव ओर पास ही घास होगयी तो उसे रामजी ने अपने वाण से मेट दिया । तच दादुरवा सार अस बोले लाग जस 'राम रुपया बोलत है।
कृष्ण--(स्वगत) हैं अभी तक यही गन्दे विचार ! धिकार घिक्कार !! (सामियस) रामजी के सच्चे मनो, आंखें खोलकर