गङ्गा०-हाँ, तो इस सेवक के लिए वह शब्द भण्डार भौ प्रकट करदीजिए गुरूजी महाराज।
माधो०-अच्छा तो सुन, आज से रसोईजी को राम रसोंई कहना, नमक को रामरस कहकर बोलना। दाल चाहे उड़द की हो या मूस की--सब को राम बैकुंठी बताना। लालमिर्च का नाम राम तड़ाका और प्याज का नाम रामलडुआ कहकर जताना। सममा?
गङ्गा०-समझा गुरूजी महाराज। तो क्या आप प्याज भी खाते हैं?
माधो०-चुप मुर्ख! प्याज नहीं, रामलडुआ खाते हैं।
गङ्गा०-वाह गुरुजी महाराज, यह तो आपने खूब गुप्त भण्डार दिखाया। परन्तु इन्न सब चीज़ो के पहले राम का नाम क्यो लगाया?
माधो०-रामजी के नाम से उन चीज़ों का अशुद्ध भाग जब शद्ध बनाया जाता है तब वह राम रसाई जा में लाकर रामप्रसादीजी के नाम से खाई जाती हैं। और सुन--
गङ्गा०-कहिए गुरुजी महाराज।
माधो०-जो कोई तुझसे तेरे भेख का नाम पूछे तो इस प्रकार बताना--"मेरे भेख का नाम सब सन्तों का दिया हुआ रामजी के आमरे गङ्गादास है। हम विवाहजी नहीं करते, परन्तु चेलाजी रखसकते हैं। चेलीजी से जो सन्तान उत्पन्न होती है वह सयोगीजी कहलाती है"।