पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/८७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ७० )

चित्र०--तुमभी जीते, तू भी जीती...

तुम इनके और तुम्हारी यह ।

अनि०--भई वाह, इस नगर की नारियाँ तो खूब गले पड़ है

चित्र०--और द्वारिका के मनुष्य गलेपडू नहीं हैं ?

जिसका बच्चा जन्म से है माखन का चोर ।
उसका नाती क्यों नहीं, होगा मन का चोर ।।

अनि०--परन्तु मैंने चोरी कब की है ?

उषा--बहन चित्रलेखा, इनका अपमान मत करो।

चित्र०--[स्वगत ] धन्य रे प्रेम, तूने ऊषा को कितना ऊंचा बना डाला है ! [प्रकट] राजकुमार तुमने चोरी की है :-

सपने ही सपने में तुमने मनकी मनहर चोरी की है।
इमने तो डाका डाला है तुमने छुपकर चारी की है ।।

अनि०--स्वप्न की बात भी कहीं पायदार होती है ?

'चित्र०--होती है, यह इस महल से पूछो, इस महल की मालकिनी के दिलसे पूछो,और अब द्वारिका से लेकर शोणितपुर तक की मजिल से पूछो।

अनि०--हां अब मुझे भी ध्यान पाया। मैंने भी कुछ इसी प्रकार का स्वप्न देखा,थाः-

ख्वाब की देखी हुई तस्वीर अब तकदीर है ।

ऊषा०--बस वही तकदीर मेरे ख्वाब की ताबीर है ।

अनि०--(स्वगत) अहा प्रेम, प्रेम, प्रेम की धारा दोनों ओर है । मैं तो समझवा था कि प्रेम मेरी ही ओर है, परन्तु दूसरी ओर से भी एक सोत बह रहा है। मैं तो समझता था कि