चित्र०--तुमभी जीते, तू भी जीती...
तुम इनके और तुम्हारी यह ।
अनि०--भई वाह, इस नगर की नारियाँ तो खूब गले पड़ है
चित्र०--और द्वारिका के मनुष्य गलेपडू नहीं हैं ?
जिसका बच्चा जन्म से है माखन का चोर ।
उसका नाती क्यों नहीं, होगा मन का चोर ।।
अनि०--परन्तु मैंने चोरी कब की है ?
उषा--बहन चित्रलेखा, इनका अपमान मत करो।
चित्र०--[स्वगत ] धन्य रे प्रेम, तूने ऊषा को कितना ऊंचा बना डाला है ! [प्रकट] राजकुमार तुमने चोरी की है :-
सपने ही सपने में तुमने मनकी मनहर चोरी की है।
इमने तो डाका डाला है तुमने छुपकर चारी की है ।।
अनि०--स्वप्न की बात भी कहीं पायदार होती है ?
'चित्र०--होती है, यह इस महल से पूछो, इस महल की मालकिनी के दिलसे पूछो,और अब द्वारिका से लेकर शोणितपुर तक की मजिल से पूछो।
अनि०--हां अब मुझे भी ध्यान पाया। मैंने भी कुछ इसी प्रकार का स्वप्न देखा,थाः-
ख्वाब की देखी हुई तस्वीर अब तकदीर है ।
ऊषा०--बस वही तकदीर मेरे ख्वाब की ताबीर है ।
अनि०--(स्वगत) अहा प्रेम, प्रेम, प्रेम की धारा दोनों ओर है । मैं तो समझवा था कि प्रेम मेरी ही ओर है, परन्तु दूसरी ओर से भी एक सोत बह रहा है। मैं तो समझता था कि