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चित्र--अच्छा तुम उबर हो। मैंने जिस मंत्र द्वारा इमको घोर निद्रा में पहुंचा दिया है, वह मंत्र उतारती हूँ।

[मंत्र उतारने की क्रिया करती है।]
 

ऊषाः-

खिलजाओ कलियो खुलखुन कर बुलबुल तू तान एड़ा अपनी ।
सूर्योदय होने वाला है, मृदुवंशी वायु घमा अपनी ।।

चित्र०--चलो सखी, अबक्षरा छुपकर इसकी लीला देखें।

(दोनों विपनाती हैं।)
 

ऊषा--मोहदय जरा तो धीरजधर,क्यों पना डोलनेवाला है। जो चित्र देखने तक हीथा,वह आज बोलनेवाला है।

अनि०--[जागकर आश्चर्य्य से ] हैं ! मैं कहाँ ?

ऊषा-मैं कहूं तो ठीक है यह-मैं कहाँ ?
तुम यहाँ हो, तुम यहाँ हो, तुम यहां ।

अनि०--[स्वगत] पलंग तो वही है, परन्तु महल वह नहीं है। और मैं ? मैं भी वह हू या नहीं ?

सोने का वह है कहाँ अपना शयनागार ।
यह मन्दिर तो है किसी नृप का रत्नागार ।।

समझा, मैं स्वप्न में हूं, फिर सो जाऊँ।

चित्र--नहीं, जाग्रत अवस्था में हो, अब मत सोओ।

अनि०--[अाश्चर्य से] हैं ! यह तो किसी मनुष्य की आवाज भाई। कौन है ? कौन बोलता है ? कौन मुझे सोने के वास्ते मना करता है ?

उषा--बहन चित्रलेखा, मुझसे तो अब नहीं छुपाजाता:--