उसे फॉसी बनाऊँगी मैं अपनी फॉब सोने की।
परा सी झोंक में इस विश्व से आजार होने को।।
नहीं, मैं भूली । मुले सक काने की शुरूरत ही नहीं है। मेरी ये बड़ी बड़ी बटें ही फाँसी का काम करेंगी।
लट तू देती रही है नित्य मुझे भानन्द ।
उलट पुलट होकर तुही, काट मेरे सप पान्द ॥
चित्रलेखा--[अन्तरिक्ष से] ठहर, ठहर, प्रीतम के विरह में प्राय: देने वाली वियोगिनी, ठहर ।
उषा--(आश्चर्य से) हैं यह किसकी आवाज है ! मारा पार्वती की या सखी चित्रलेखा की ?
(चित्रखा का अभिरुद्ध के पलंग सहित भाकाय मार्ग से सगरमा)
चित्रलेखा:--
भब न छोड़ेगी तुझे यह प्रेम की प्यासी वेरी।
भारही है गंगधारा की तरह दासी तेरी।
उषा--आरही है, प्रारही है, सखी पारही है। सनी नाही भारही है, जिदगी आरही है !
चित्र०--(नीचे आकर) राजकुमारी, वधाई।
उषा--सस्त्री, मैं आज तेरी ऋणी होगई हूं:-
बाप ने पाला था मुझको अपनी बेटी जानकर ।
दाधियों ने सुख दिया था राजपुत्री मानकर ॥
माँ भवानी ने दिया वरदान वेरी जानकर ।
पर पिलाया तूने अमृत सूखी खेती जानकर ।।