पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/८१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ६४ )

(स्वगत) नहीं आई, अब तक इस चातकिनी की प्यार बुझानेवाली, स्वाति की खूद वह चित्रलेखा नहीं पाई । क्या नहीं पायी ? (प्राय से ) हैं वामान फड़कने लगा ?अवश्य आयेगी।

मेरी इस प्रेम खेती को फली फूली बनायेगी ।
घटाभनकर दह पायेगी, इवा परकर वा आयेगी ।।

परन्तु,न जाने हृदय क्यो घबरा रहा है ? एक एक क्षरण एक एक वर्ष के समान जारहा है। बताओ मेरे पिता सूर्य और चन्द्र । चित्रलेखा तुम्हारी दोनों आँखों के सामने ही होगी । ताओ इस समय बह कयों हैं ? भाकास, तेरे ही सादर मे बह मेरी प्यारी सखी छुपी हुई है, प्रट करदै । वायु, तू ही उसकी ऐसे समय में साथिनी है, उसे इधर की राह बतादे:-

पंख न दिये विधाता तूने धरना मैं पढ़ जाती ।
प्राणसखी के साथ साथ ही प्राण सखा को लाली ।।

आह, आज की रात्रि घड़ी ही बेचैनी की रात्रि है । निद्रा नहीं आती है। यह मुख शय्या कॉटों की शय्या के समान दिखाती है। यह राजमहल की शोभा सिर्जन बन के समान डराती है । (सहयं कर) नहीं पायेगी, अब तो यही मालूम होता है कि चित्रलेखा नहीं आयेगी! तप, तब, सफेद सफेद धीधागे, तुम बहान बन जामो, मैं सिर फोड़गी। अगूठी के हीरे, तू काल आवजा, मैं तुझे मुलमें डालूगी । भाले की रस्सी ! तू यमपाश बनजा, मैं आज तुझे पकड़ कर भाखिरी बार भूलूंगी :--

वह झूजा झूलते दिल को मेरे झोंके जो देता है।
झूलाने के बहाने मेरे मन को मोह लेता है।।