पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/७७

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भोला॰–तो लो वह शंकरगिरि भी लड़के को ले आया।

गौरी॰–तो लो यह गौरीगिरि भी मैदान में कूद आया।

[पांव पर पांव चढ़ाके बैठना, शंकरगिरि
का गङ्गाराम को लेकर आना।

गौरी॰–आओ बेटा, व्यर्थ की हठ छोड़ दो । शैव होना कुछ अनुचित नहीं है। वैष्णव धर्म में तुम्हें रोज़ सवेरे एक लड्डू मिलता था तो यहां दो लड्डु मिला करेंगे।

गङ्गाराम–चल चल लंगोटे, लड्डू पर कहीं धर्म छोड़ा जाता है।

धर्म ही संसार में एक सार है। धर्मही हरजीव का आधार है॥
धर्म पे तन प्रान सब बलिहार है। धर्म जो छोड़े उसे धिक्कार है॥

गौरी॰–अरे जब तक झलमलाती जलेबियां, लच्छेदार रबड़ियाँ और टकोरेदार पूरियाँ पेट नहीं पाता है तबतक कहीं धर्म पूरा होने पाता है?

भोला॰–अरे बच्चा, वैष्णव-धर्म धर्म नहीं हैं, सच्चा धर्म तो शैव पंथ ही है।

गङ्गाराम–हैं, यह कैसे? तुमने वैष्णव धर्म को समझाभी है!

भोला॰–अरे समझा भी है, सोचा भी है, सुना भी है और देखा भी है।

गङ्गाराम–क्या खाक समझा और सोचा है। अपने ही धर्म की पुस्तकों के पन्ने लौटनेवालो और उसके अर्थ का अनर्थ करके दुनियाँ को धोका देनेवालो, तुम धर्म की महिमा क्या जानो?

वैष्णव वह धर्म है जो देश का श्रृंगार है।
देशके जीवन की नौका का वही पतवार है॥
जिस समय संसार में पापों का बढ़जाता है ज़ोर।
तब हमारा विष्णु ही लेता यहां अवतार है॥