सुनरे जन्म के शैव,तू तो प्रारब्धका हेटा है जो शैवों में जन्म लेके शैव ही रहा। यहां तो जब तक वैष्णाबो में मोहनथाल पाया तबतक सच्चे वैष्णव रहे, और जब उन्होंने ताड़ लिया तो शाक्तों मे आ धमके। कुछ दिन वहाँ की फूली २ कचौड़ियाँ खांई। फिर तुम्हारे यहाँ आकर मालपुए और जलेबियाँ उड़ाई।
भोला०-अरे क्या तू वैष्णव सम्प्रदाय में था? या चिलम ज्य़ादा चढ़गई है!
गौरी०-अरे बेटा, अपनी तो सारी आयुही वैष्णव सम्प्रदाय मे गई, जब वहाँ मालपुओं का टोटा आया तो पीताम्बर फेककर यह लंगोटा लगाया। देखो, तुमसे भी कहे देता हूं कि रोज़ चिलम पिलाने के बाद हलुआ खिलाना होगा, नहीं तो तुम्हारा पंथ भी छोड़देगे।
भोला०-अरे हलुआ चाहे जितना खाओ। हमारे पंथ में क्या आँखों के अंधे और गाँठ के पूरे यजमानों की कमी है?
गौरी०-ऐसा है तब तो मौज ही मौज है।--
जब मालपुआ हो खाने को, गाँजे की चिलम उड़ाने को।
तो धिक् है पोथी पढ़ने और घंटा घड़ियाल बजानेको॥
भोला०-अच्छा तो सुनो, कल ही एक वैष्णव बालक को शंकरगिरि लाया है। वह बहुत समझा चुका पर लड़का वैष्णव धर्म नहीं छोड़ता। आज वह उसी बच्चे को यहाँ लाता होगा। तुम पहले उसको समझाना, अगर वह न माने तो जबरदस्ती शैव बनाना।
गौरी०-यह कौनसी बड़ी बात है यह तो अपनी भभूत की अदना करामात है।