पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/७२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ५५ )

चित्र०--दूंगी।

सुदर्शन--मोतियों का तोड़ा लूंगा !

चित्र--दूंगी।

सुदर्शन--लक्खी घोड़ा लूगा ।

चित्र०--दूंगी। अच्छा तो सुनो, तुम शीघ्र नारद जी के पास चले जाओ।

सुदर्शन--क्या लग्न-पत्रिका बचबाने के लिए ?

चित्र०--अरे तुम तो हर्ष में दीवाने से होगये हो! तुम यह भूलगये कि यह सब स्वप्न की बात है।

सुदर्शन--हां माता जी, अप ध्यान आया कि आपने अपना स्वप्न वर्णन किया । अच्छा, तो इस समय मुझे नारद जी पास क्यों जाना चाहिये ?

चित्र०--इस स्वप्न का फल मालूम करने के लिए ।

सुदर्शन--इस समय--पाधी रात में ?

चित्र०--हाँ, नारद जी तो सब समय जागते ही रहते हैं। फिर उन जैसे मुनि लोग तो रात्रि ही में शान्ति-पूर्व क बात करते हैं।

सुदर्शन--बहुत अच्छा, लीजिये यह चला ! परन्तु माता जी कहीं यह सप भी तो एक स्वप्न नहीं ?

चित्र०--नहीं, स्वप्न इसके पहले था, जिसको सन्चा करने के लिए मैं यहां आई हूं।

सुदर्शन--परंतु माताजी, पहरे पर ले मेरा हटना तो उचित नही है।