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ऊषा--स्वप्न सञ्चा है और सच्चा होगा; इसमे तनिक सन्देह नहीं । बहन चित्रलेखा, तुमने मेरे एक बड़े भारी रोग की शान्ति कर दी । मैं जितनी भी तुम्हारे प्रति कृतज्ञता प्रकट करू; थोड़ी है।

सरस्वती--हाँ जी, इनकी कृतज्ञ कैसे न होयोगी ।

ऊषा--परमात्मा वह समय जल्द लाये, जब कि मैं बहन चित्रलेखा के ऋण को धन द्वारा नहीं, बल्कि अपने प्रेम द्वारा धुझा सकू।

सरस्वती--अच्छा तो अब इनसे यह कहिए कि उस मूर्ति के प्रत्यक्ष दर्शन करायें!

ऊषा--सखी, यह तो तूने मेरे मनकी बात कह डाली। (चिनालेखा से) बहन चित्रलेखा बता, अब उस देवता से सनेह भेंट कैसे होगी ! मै धन छोड़ सकती हूं, धाम त्याग सकती हूं, राज्यको ठोकर मार सकती हू, यहां तक कि प्राणोंको भी न्योछावर करसकती हूं-केवल एक बार दर्शन के लिये-दर्शन के पीछे यदि मृत्यु भी आजाय तो मैं अपना सौभाग्य समझूगी। संसार में देह धारण करके मनुष्य तरह तरह के ध्येय का ध्यान करता है, किन्तु मुझे इस समय केवल दोही का ध्यान है। एक उस मनोहर चित्रका और दूसरा तेरा । तू मेरी बड़ी बहन है, तू मेरी सच्ची सखी है । जिस प्रकार से भी हो,उस मूर्ति को यहाँले आ।

चित्र०--मैं तुम्हारे लिये सब कुछ करूंगी। मुझे तो दीखता है कि ईश्वर ने समस्त विद्याएँ मुझ आज ही के लिये प्रदान की हैं । मैं आकाश-मार्ग में उड़ना भी तो जानती हूं।

ऊषा--बस तो फिर ! काम ही बनगया। अब देर न कर ! भगवती पार्वती मेरा तेरा और उनका कल्याण करें।