पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/६३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(४६)

ऊषा--यही है, यही है। (ठहरकर) नहीं नहीं, भ्रम हुआ, बड़ी भूल हुई। मुख, नाक और भौं तो मिलगई। परन्तु सूरत से आयु उतनी नहीं जान पड़ती। मेरा हृदया कहरहा है कि मै अब किनारे तक आगई हूं केवल दोचार हाथ ही की और कसर है।

चित्र०-तो बस, होचुका। अब मैं चित्र भी नहीं दिखला सकती। मुझे इतनी ही विद्या आती है।

ऊषा--मेरी बहन, मेरी प्यारी बहन, मुझपर कृपाकर। अमृत का प्याला होठों से लगाकर न हटा, यदि अधिक तरसायगी तो मेरे प्राण निकल जायेगे।

चित्र०-अच्छा, [अनिरुद्ध का चित्र बनाकर] इस चित्र को देख।

ऊषा--हाँ, हाँ यही है! यही है! (आगे बढ़ती है)

चित्र०-[चित्र को मिटाकर] नही, यह चित्र मैंने भूल से दिखला दिया है। यह चित्र वह चित्र नहीं होसकता। ऊषा--देखो, तुम मुझपर इतना अत्याचार न करो। मैं स्वयं पीड़ित हूं। मैं स्वयं सताई हुई हूं। मुझपर दया करो।

[चित्रलेखा फिर अनिरुद्ध का चित्र बनाती है और ऊषा उसे देखकर चित्रलिखितसी रह जाती है]

चित्र०-क्यों बहन ऊषा, बोलती क्यों नहीं? तुम तो बिलकुल पाषाणमयी अहिल्या होगंई।

माधुरी--मैं तो अपने स्वामीके सामने खूब चंचल होजाती हूं!

सरस्वती--परन्तु ऊषा तो केवल चित्र को देखकर ही साक्षात् चित्रसी बनगंई, जब पति के सामने जायेंगी तो न जाने क्या दशा होगी।