पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/५९

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करेंगी। विवाह के विषय में उन्हीं का पूर्णाधिकार है । परन्तु क्या यह स्वप्न सच्चा होसकता है ? हृदय तो यही कहता है कि यह अवश्य सच्चा होगा । आह ! अंदर ही अंदर एक अग्नि सी सुलग रही है । लेटना कठिन होगया है । परन्तु अभी तो रात बहुत बाकी है। क्या करूं कुछ समझ में नहीं आता ! अच्छा, फिर एक बार उस दिव्यमूर्ति का ध्यान धरलूं ! नहीं नहीं, मैं ठगीसी जा रही हूं। मेरे विचार चारों ओर बिना लगाम के घोड़ों की तरह भाग रहे हैं । अरी सरस्वती, शारदा, माधुरी, मनोरमा, प्रतिभा और प्रभा, चंचला और चित्रलेखा तुम सब कहाँगई ? यहां तो आओ!

[सखियों का श्राना]
 

शारदा--अरी, क्या हुआ ?

सरस्वती--अपनी सखी को क्या होगया ?

ऊषा--न जाने आज मेरा चित्त इतना क्यों व्यथित है। नींद नहीं आती है, तबियत बहुत ज्यादा घबराती है।

शारदा-क्यों ! क्या कोई आश्चर्यकारी स्वप्न देखा ?

ऊषा--स्वप्न ! मैं नहीं जानती कि वह स्वप्न था या जागृति ! पर देखा कुछ अवश्य था । मैंने देखा कि एक अलौ- किक प्रतिभावाला पुरुष ऊषा नामक बालिका की ओर वृक्ष की डाली की नाई प्रेम का हाथ बढ़ाये हुए चला रहा है । उसके मुख से सौन्दर्य और शुद्ध-प्रेम की छटा निकलकर ऊषा के श्वेत गात को लालायित करती जा रही है। इसके पश्चात् उमाजी ने भाकर कहा कि यही युवक ऊषा का पति होगा।

सरस्वती--अरी, ये स्वप्न की बातें ऐसी ही होती हैं । मैंने भी एक स्वप्न देखा है।