पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/५८

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है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि सृष्टि सदा नवयौवना रहती है, उसे कभी बुढ़ापा भाता ही नहीं :--

गाना

तनमें मनमें बस्ती बनमें, है वह प्रेम निखार ।
मानो आज प्रेम-सागर में, लय होगा संसार ॥

[गाते गाते ऊषा सोजाती है और स्वप्न देखती है कि पार्वती जी अनिरुद्ध के साथ उसका पाणिग्रहण कराती है तभी चौंक कर उठखड़ी होती है ]

ऊषा--हैं।यह मैंने क्या देखा ! अभी अभी क्या देखा । क्या यह स्वप्न था, या 'जागृति ? नहीं २ स्वप्न था । जाग्रत अवस्था में क्या कोई पुरुष ऊषा की ओर आंख उठाकर देखसकता है। अहा, वह पुरुष भी कोई अलौकिक पुरुष था, वह सूरत भी कोई स्वर्गीय सूरत थी। ऐसा जान पड़ता था कि एक ओर ऊषा की सदेह प्रतिमा और दूसरी ओर वह मनहर मूर्ति, दोनों एक दूसरे को देखरहे हैं। फिर ? फिर ? वह दिव्यमूर्ति नेत्रों द्वारा उषा को मूर्छित करके ऊषा के हृदय के कोष से सहसा कोई रन निकालने का प्रयत्न कर रही थी। परन्त ऊषा पीछे हटती थी और लज्जित नेत्रों से उसके चरण की ओर देखरही थी। इसके बाद ? क्या हुआ ? अचानक उमाजी ने ऊषा को समझाया कि यह मनमोहन पुरुष तेरा पति होगा। बस, बस इतनेही में ऑरव खुलगई ! क्या संसार में और भी कोई ऊषा है ? अथवा मैं स्वप्न में अपना ही अभिनय देख रही थी। नहीं, यह मैंने अपने ही विषय में स्वप्न देखा है, क्योंकि मैं उमाजी के प्रमाद से इस लोक में आयी हूं। उमाजी मेरी माता हैं । वही मेरा विवाह