दशरथजी ने जिस धूमधाम से पारोतजी को चढ़ाया सो बसान में नहीं पाता-
रूपाणि मदनोधृत्वा बहूनि रति संयुतः ।
ददृशे रामचन्द्रस्य विवाहं परमाद्भुतम् ।।
मानो मदन कहिए कामदेव, सो अपनी बहू रति को रूपाणि कहिए रुपये में गिरवी धरके रामचन्द्रजी का अद्भुत विवाह देखता भया।
सप--धन्य है, धन्य है।
माधो०--फिर बढ़ारजी भार्थी, जिसमें बड़े बड़े बरातियों के भोजन को महाराज जनकजी ने बड़ी २ कठिनाई से बड़े बनवाये । उस बड़ों को बनाने के लिए--
"शतयोजनविस्तीर्णान् कटाहान् कृतवान्मुनिः"
एक मुनि ने सौ सौ योजन के विस्तारवाली कदाइयाँ बनायीं । तब-
"आकाशात्तप्ततैलस्य वृष्टिर्जाता समन्ततः"
आकाश से गरमागरम तेल बरसकर उन कढ़ाइयों में गिरा तव कहीं घड़े बने । अब परोसने के लिए-
<poem>"युगपदशसहस्राण नपाणौँ बुद्धिशालिनाम् । तोलने विफलीभूता चेष्टा तेषां बलान्विताम् ॥"<poem>
दसहजार बुद्धिमान् और बलवान् राजाओं की एक साथ चेष्टा करने पर भी एक बड़ा नहीं उठा-
सरयू०--अरे, यह क्या गड़बड़ घोटाला है ? रामायण में यह कथा कहाँ है ?