मुझे प्यारा मालूम होता है) को ही है और कामिक का बहुत सा भाग तो उन्ही की विशाल बुद्धि की उपज है। शेष उनके आशीर्वाद का फल है। मैं क्या हूँ, मुझ अल्पज्ञ कीक्या शक्ति है। भगवान् जैसा चाहते हैं वैसा अपने बालकों से करालिया करतेहैं:–
मेरे दिल को दिल न समझो, मेरी जाँ को जाँ न समझो।
कोई और बोलता है, ये मेरी ज़बाँ न समझो॥
अन्त में, इसनाटक के लिखने के दिनों में जो दो प्यारी शक्तियाँ मेरी सहायक रही हैं उनका भी ज़िक्र किए बिना यह 'निवेदन' समाप्त नहीं किया जासकता। उनमें एक हैं मेरे प्रिय सतीशकुमार बी॰ए॰ (भ्रमर-सम्पादक) और दूसरे है मेरे अनुज मदनमोहन लाल शर्म्मा (उत्तर-रामचरित्र लेखक)। मैं सोच रहा हूं कि इन्हें धन्यवाद दूं या आशीर्वाद! या हँसकर यह कहदूं कि यह 'नाटे' ही इस नाटक की खड़खड़िया को खींचकर स्टेज तक लेगए। अच्छा, दोनों बने रहो।
पाठकों को इस नाटक में प्रेम मिलेगा, धर्म्म मिलेगा, और कहीं कहीं शिक्षा भी मिलेगी, ज़्यादातर क्या मिलेगा, यह मैं भी नहीं जानता। इतना अवश्य जानता हूं कि कुछ मिलेगा जरूर। इसीलिए इसे प्रकाशित करके इस महायज्ञ की आज पूर्णाहुती करता हूं।
गम्भीर, उदार महज्जन की, यदि कृपादृष्टि अपनाती है। तो बूंद भी नन्ही, छोटीसी, सागर का पद पा जाती है।
बरेली | अकिञ्चन— |
रथयात्रा, आषाड़ १९८२ वि॰ |