पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/३१

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विष्णुदास है; पर हमारा पन्थ नहीं है। जिस पन्थ में हमने अन्म लिया, जिस पन्थ की गोद में हम पले, जिस पन्थ की कृपा से हम खड़े हुए, उसी पन्थ पर अत में इस शरीर को छोड़देंगे, परन्तु पराया पन्थ न ग्रहण किया है और न ग्रहण करेंगे:-

अन्य पन्थयों से न हमको प्यार है ।
पन्थ पर अपने ही बस आधार है॥
वैष्णवों का विष्णु जीवन सार है।
विष्णु-पद ही अपना मुक्ती-द्वार है॥

वाणासुर-तो जा, विष्णु के पुजारी, अपने विष्णु के द्वार घर जाने के लिये तैयार होजा।

विष्णुदास--तय्यार है । विष्णु के नाम पर बलिदान होने के लिए यह विष्णुदास तय्यार है, परन्तु यह याद रहे

रक्तसे लाखों बनेंगे विष्णु-भक्त,
विष्णु-भक्तों से धरा भर जायगी।
प्रीष्म यहधर कर वसन्ती रूपको,
धर्म का विरका हरा कर जायगी॥

वाणसुर--अगर मैं मैं हूँ तो इस वैष्णव-धर्म बिरवे को अड़ से उखाड़ डालूंगा।

विष्णुदास--और, अगर मेरी भक्ति में शक्ति है तो यह विरवा उखड़ने की अपेक्षा तेरे ही महल में लग आयगा। कोई विष्णु का भक्त, कोई विष्णु का सम्बन्धी वेरी पुत्री को अपनी पत्नी बनायगा:-

सच्चे हैं अगर विष्णु तो सबा यह वचन हो,
तेरे ही घर में न्याय से अन्याय दमन हो।