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( ८ )

भक्तों को देते रहे, सदा आप वरदान ।
है उदारता आपकी विश्व विदित भगवान ।
मनवाँछित वर दीजिये, होजनका कल्यान ।
सेवक सर्वप्रकार से, पड़ाचरण में आन ॥

[चरणों मे गिर जाता है।
 

शिव-उठो, भक्तराज उठो । मैं वरदान देता हूँ कि संग्राम में तुम्हे कोई मनुष्य नही जीत सकेगा।

वाणासुर-[उठकर प्रसन्नता से] जय, जय, त्रिपुरारी की जय !

पार्वती-कहो, भक्तराज ! अब और क्या इच्छा है ?

वाणासुर-मातेश्वरी, अभी अभी वरंब्रूहि का वाक्य आफ्ने और मेरे इष्टदेव महेश्वर ने साथ साथ कहा था । उन्होंने तो वरप्रदान करदिया, अव आपसे एक वरदान की इच्छा रखता हूँ?

पार्वती-भक्तराज, मैंने तो जब तुम समाधि में थे तभी संकल्प करलिया था कि तुम्हें एक पुत्री का वरदान दूंगी। अतएव मेरे आशीर्वाद से तुम्हारे यहां एक ऐसी कन्या का जन्म होगा जो सतियों में श्रेष्ठ, पतिव्रताओं में अग्रणी, सुन्दरता में अद्वितीय और संसार में माननीय होगी । जिसका उज्वल चरित्र सुनकर नारिजाति शिक्षा पायेगी और जो उषा काल में जन्म लेने के कारण ऊषा के नाम से पुकारी जायगी।

वाणासुर-धन्य माहेश्वरी।

शिव-ले मैं अब देता तुझे, भक्त धजा यह दान । तेरी जय का रहेगी, यह सर्वदा निशान ।।

(ध्वजा देना)
 

वाणासुर-जय, जय, जय!

[शिवजी के हाथ में से ध्वजा लेना और पर्दा गिरना]