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क्योंकि "प्रीति बराबर वालों में होती है, छोटे बड़ों में नहीं होती।" राजा का कोप उसे अपने उद्देश्य से विचिलित नहीं करसकता, पिता की मृत्यु उसे अपने कार्य में अधिक लीन कर देती है।

माधोदास एक अनपढ़ और अज्ञानी महन्त है। वे आजकल के उन साधुओं का नमूना हैं जो दूसरों को चेला करना और उनका जीवन व्यर्थ नष्ट करना ही अपना उद्देश्य समझते हैं। वे अपने शिष्यों पर धाक बैठालने के लिये अपने आप को शास्त्र प्रवीण प्रकट करते हैं।

पुरोहितजी महाराज आजकल के पुरोहितों का नमूना हैं। वे कन्योत्पत्ति के समय राजदरबार में पत्री देखते हैं। यह बात ठीक २ निश्चित नहीं है कि वे ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता हैं अथवा नहीं, परन्तु इतना सत्य है कि वे राजा को प्रसन्न करने के निमित्त ग्रहों का सारा फल 'बहुत अच्छा' बतलाते हैं।

नाटक को रोचक बनाने के निमित्त गोमतीदास, सरयूदास, कौशिकीदास आदि अन्य छोटे २ पात्रों की कल्पना की गयी है। उनका नाटक में कोई आवश्यक और मुख्य भाग नहीं है। इस कारण उनके विषय में लिखने की आवश्यकता नहीं है।

बीसवीं शताब्दी के भारतवर्ष को वीर रस और रौद्र रस की आवश्यकता है। इस हीन हिन्दू जाति के प्रत्येक बालक को यह बतलाने की ज़रूरत है कि इस संसार में किसी विचार और आदर्श के लिये किस प्रकार प्राण दिये जासकते हैं। साँसारिक सुखों में लीन रहना और झूठे शृंगार की कोमल टहनियाँ पकड़ कर आकाश पर चढ़ने की इच्छा करना इस मानवी जीवन का उद्देश्य नहीं है। इस समय क्षत्रियत्व की आवश्यकता है। वाणासुर और विष्णुदास की बात चीत और दूसरी ओर वाणासुर और अनिरुद्ध के गर्मागरम सम्वाद से इन दोनों रसों की प्रधानता प्रकट होती है।

नाटक में शृंगार अथवा प्रेमरस का होना उतना ही आवश्यक है जितना अन्य किसी रस का। मानवी जीवन में शृंगार सबसे अधिक प्रभाव रखता है, यहाँ तक पशुपक्षी, जल