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वह चित्रलेखा की चाल में आ जाता है। मनमें यह विचारकर कि कहीं माता रुक्मवती अप्रसन्न न हो जाँय, उनकी आज्ञा से वह पहरे पर से हट कर नारद के पास जाता है।
विष्णुदास धर्म पर बलिदान होजाने वाला वीर है। वह 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' के मन्तव्य पर कटिबद्ध है। वीर हक़ीक़त की नाईं वह अपने जीवन का मोह नहीं करता है। उसकी दृढ़ता निम्नलिखित पद्योंसे भली भाँति प्रस्फुटित होती है––
सूर्य चाहे अपनी गर्मी छोड़दे,।
शेष चाहे अपनी शक्ती छोड़ दें॥
पर नहीं होगा यह तीनों काल में।
विष्णु सेवक विष्णुभक्ती छोड़ दे॥
उसकी मृत्यु के समय के अन्तिम शब्द 'इस अत्याचारी से मेरी हत्या का बदला लेना" उसके पुत्र कृष्णदासको मार्ग दर्शानवाले हैं। प्रायः महात्मा पुरुषों को उत्तम सन्तान का सौभाग्य नहीं प्राप्त होता है, किन्तु विष्णुदास उन भाग्यशाली पुरुषों में है जिसका पुत्र भी पिता से कम धर्मनिष्ठावाला और कम कर्तव्यपरायण नहीं है। शेक्सपियर के प्रसिद्ध पद्यों में––
'Stone walls do not make a prison, nor ironbars a cage'
वह आत्मा की स्वतंत्रता में दृढ़विश्वास रखता है।
नाटक में कृष्णदास का चरित्र भी ज़बरदस्त है। वह केवल सामान्य वैष्णव ही नहीं बल्कि उस धर्म का प्रचारक है। वह उस धर्म को मानकर स्वयम् ही मुक्ति नहीं चाहता बल्कि दूसरों को भी उस मार्ग पर लाने का प्रयत्न करता है। वह साधुओं को संगठित करना चाहता है और उसका विश्वास है कि जात्युत्थान में इनसे पूर्ण सहायता मिल सकती है। उसमें धर्म विश्वास के साथ २ एक धारणा और एक निश्चलता है, वह दलबन्दी का पक्षपाती है, परन्तु किसी द्वेषभाव से नहीं। उसकी राय में प्रकृति का आधार संगठन है, और यदि अपनी जाति को नष्ट होने से बचाना है और दूसरी जातियों से मैत्री करनी है तो उनके समान बनना चाहिये,