पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१३७

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सहायक तुमसे भी बढ़कर है। तुम यदि सुदर्शनधारी कृष्ण हो तो मेरा स्वामी त्रिशूलधारी शकर है !

श्रीकृ०--अच्छा तो देखना है मेरे चक्र के सामने कौन अढ़ सकता है।

शिव० [एक क़दम आकर और त्रिशूल उठाकर] उस चक्र से यह त्रिशूल लड़ सकता है।

[त्रिशूल और सुदर्शन चक्र का युद्ध होनेलगता है ]
 

वाणा०--धन्य, त्रिपुरारी धन्य ।

नारद--[आकर] त्राहिमाम् , त्राहिमाम् ! रोकिए, भगवन् शाँत कीजिए ! इन दिव्य अस्रो के भयँकर युद्ध से ब्रह्माण्ड भस्म होजायगा। इस भयङ्कर लीला के कारण संसार आपके एक म्वरूप को द्वैतभाव से देखने लगजायगा। अतएव इस माया को समेटिए।

चक्र और त्रिशून के बदले बजादो हरीहर ।
ज्ञानका डमरू उपर और प्रेमकी वंशी इधर ॥

शिव--कृष्ण-एवमस्तु !

[अस्त्रों का युद्ध बंद होकर अलग होजाते हैं]
 

श्रीकृ०--वीर वाणासुर! हम और शिव वास्तव में एक हैं, वे मूर्ख हैं जो दोनों में भेद समझते हैं । यह तो एक होनहार बात थी जो होकररही, किंतु अब हमारामाशीर्वाद है किं तुम्हारा राज्य भटल रहेगा, और तुम्हारे हृदय से अज्ञान का पर्दा हटकर कान का श्रोत बहेगा!