अनि०--क्षमा कीजिए, बारबार उसी बात को दुहरा कर मेरी आत्मा को दुःख न दीजिए । ऊषा के विषय मे आपके चित्त मे जो बुरा भाव है उसे निकाल दीजिए :--
ऊषा का प्यारा नाम मुझे, दुखमें भी सुख पहुंचाता है
इस कारागार में ऊषा ही, विरही की जीवनदाता है
ऊषा--(चित्रलेखा से ) बहन चित्रलेखा, देख ! विरही का विरह देख ! प्रेमी का प्रेम देख ! मेरा दिल तो अब नहीं मानता!
चित्र--तो क्या करोगी?
ऊषा--यह माया का पट हटाकर चकोरी अपने चंद्र का दर्शन करेगी!
चित्र०--सखी, तनिक धीरधरो, इसतरह एकदम अधीरता प्रकट न करो। [अनिरुद्ध से] राजकुमार यह तुम्हारी भूल है, उषा ही तुम्हारे सारे दुखों की मूल है !
अनि०--हैं, फिर वही बात ! फिर वही ढाक के तीन पात ! तुम्हारा उपदेश मेरे धर्म के प्रतिकूल है।
जब ऊषा जैसा रत्न नहो तो व्यर्थ ये मनमंजूषा है।
चित्र०--मनमंजूषा की भूषा है...
ऊषा--[बुर्का हटाकर आगे बढ़ते हुए ] तो लो हाजिर यह ऊषा है।
[ऊषा का प्रकट होजाना और वाणासुर का आना ]
वाणा०--[आश्चर्य से ] हैं ! ऊषा !! महल मे भी ऊषा, मूले पर भी ऊषा, वायुयान पर भी ऊषा और कारागार में भी ऊषा ? सब जगह ऊषा ही ऊषा!