शैव:--यह आप क्या कहरहे हैं? इन वैष्णवों से हमारा मेल कैसे हो सकता है ? ये तो हमारे इष्टदेवकी निंदा करते हैं !
गङ्गा:--तो तुम हमारे इष्ट देव की निंदा नहीं करते हो?
कृष्ण:--तब तो मैं तुम दोनों की निंदा करूंगा जो आपुस । में झगड़ते हो!
शैवः--अच्छा तो आपही बताइये, परस्पर मेल होने का आप क्या उपाय बताते हैं ?
कृष्ण:--मुनिये, आप जो शैव सम्प्रदाय को ऊंचा बताकर वैष्णव सम्प्रदाय की निंदा करते हैं यह आप की भूल है । इसी प्रकार (महंत से ) आप जो वैष्णव सम्प्रदाय की श्रेष्ठता बताकर शैवों से बैर बढ़ाते हैं यह भी धर्म प्रति-कूल है। क्योंकि दोनों सम्प्रदायोंका एक ही लक्ष्य है। न तो शिव विष्णु से बड़े हैं और न विष्णु शिव से । बल्कि"शिवस्य हृदये विष्णुः विष्णोस्तु हृदये शिवः” के अनुसार शिव के हृदय में विष्णु विराजमान हैं और विष्णु का हृदय शिव जी का निवासस्थान है ! यही नहीं, बल्कि शिव जी के त्रिशूल चिन्ह को तिलक रूप में वैष्णव धारण करते हैं, और विष्णु के धनुष को उसी रूप में शैव धारण करते हैं।
सबलोग:--धन्य, महाराज धन्य ! आपने आज हमसब का अज्ञान दूर करदिया है और हम पर बड़ा भारी उपकार किया है।...बोलो, संगठन की जय, एकता की जय, शिव विष्णु की जय, हरी हर की जय !
कृष्णदास..